- महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 52वें अध्याय में 'भीष्म और अर्जुन का युद्ध' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कौरव तथा पाण्डव सेनाओं का युद्ध
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! इस प्रकार मेरे और पाण्डवों के सैनिकों की व्यूह रचना हो जाने पर उन श्रेष्ठ योद्धाओं ने किस प्रकार युद्ध प्रारम्भ किया ? संजय ने कहा- राजन्! आपके पुत्रों ने पाण्डवों के साथ जिस प्रकार युद्ध किया, वह बताता हूं, सुनिये। जब सब सेनाओं की व्यूह रचना हो गयी, तब समस्त सेना एक होकर एक अपार महासागर के समान प्रतीत होने लगी। उसमें सब ओर रथ आदि में आबद्ध सुन्दर ध्वजा फहराती दिखायी देती थी उसे देखकर सैनिकों के बीच में खडा हुआ आपका पुत्र दुर्योधन आपके सभी योद्धाओं से इस प्रकार बोला- ‘कवचधारी वीरो! युद्ध आरम्भ करो’। तब उन सब ने मन को कठोर बनाकर प्राणों का मोह छोड़कर ऊची ध्वजाएं फहराते हुए पाण्डवों पर आक्रमण किया। फिर तो आपके और पाण्डवो के सेनिकों में रोमांचकारी घमासान युद्ध होने लगा। उसमें उभय पक्ष के रथ और हाथी एक दूसरे से गुँथ गये थे। रथियों के छोडे़ हुए सुवर्णमय पंखयुक्त तेजस्वी बाण कही भी कुण्ठित न होकर हाथियों और घोडों पर पड़ने लगे। इस प्रकार युद्ध आरम्भ हो जाने पर भयंकर पराक्रमी एवं कुरूकुल के प्रभावशाली वृद्ध पितामह महाबाहु भीष्म धनुष उठाये कवच बांधे सहासा आगे बढ़े और अभिमन्यु, भीमसेन, महारथी सात्यकि, कैकय, विराट, एवं द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न इन सब नरवीरों पर और चेदि तथा मत्स्यदेशीय योद्धाओं पर बाणों की वर्षा करने लगे। वीरो के इस संघर्ष में सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और सभी सैनिको का आपस में महान सम्मिश्रण हो गया। घुड़सवार, ध्वजा धारण करने वाले सैनिक तथा उत्तम घोडे़ मारे गये। पाण्डवों की रथसेना पलायन करने लगी।
तब नरश्रेष्ठ अर्जुन ने महारथी भीष्म को देखकर भगवान श्रीकृष्ण से कुपित होकर कहा-वार्ष्णेय! जहाँ पितामह भीष्म हैं, वहाँ चलिये। अन्यथा ये भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर निश्चय ही मेरी सारी सेना का विनाश कर डालेंगे क्योंकि इस समय ये दुर्योधन के हित में तत्पर है। जनार्दन! सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले भीष्म के द्वारा सुरक्षित हो ये द्रोण, कृप, शल्य, विकर्ण तथा दुर्योधन आदि समस्त धृतराष्ट्र पुत्र मिलकर पांचाल योद्धाओं का संहार कर डालेंगे। अतः सेना की रक्षा के लिये मै भीष्म का वध कर डालूंगा।तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धनंजय! सावधान हो जाओ। अभी तुम्हे भीष्म के रथ के समीप पहुँचाये देता हूँ। जनेश्वर! ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने उस विश्वविख्यात रथ को भीष्मजी के रथ के निकट पहुँचा दिया। उस रथपर बहुत-सी पताकाएं फहरा रही थी। उसमें बकपंक्ति के समान श्वेत वर्ण वाले चार घोडे़ जुते हुए थे। उसके अत्यन्त ऊंचे ध्वज के ऊपर एक वानर भयंकर गर्जना करता था। उस रथ के पहियों की घरघराहट मेघ की गर्जना के समान गम्भीर थी तथा वह रथ अनन्त तेज (कांति) से सम्पन्न था। उस विशाल रथ पर आरूढ़ हो पाण्डुनन्दन अर्जुन, जो सबको शरण देने वाले और सुहृदों का आनंद बढाने वाले थे, कौरवसेना एवं शूरसेन देशीय योद्धा का वध करते हुए शीघ्रतापूर्वक भीष्म के पास गये। महाराज! कुरुकुल के पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कर्ण के सिवा दूसरा कौन ऐसा रथी है, जो गाण्डीवधारी अर्जुन का सामना कर सके।[1]
नरेश्वर! तदनन्तर सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी भीष्म ने अर्जुन पर सतहत्तर बाण चलाये, द्रोण ने पचीस, कृपाचार्य ने पचास, दुर्योधन ने चौसठ, शल्य ने नौ, जयद्रथ ने नौ, शकुनि ने पांच तथा विकर्ण ने दस भल्ल नाम बाणों द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन को बींध डाला। इन समस्त तीखे बाणों द्वारा चारों और से विद्ध होने पर भी महाधनुर्धर महाबाहु अर्जुन तनिक भी व्यथित नही हुए। ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी पर्वत को बाणों से बींध दिया हो। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात अमेय आत्मबल से सम्पन्न, किरीटधारी पुरुषसिंह अर्जुन ने भीष्म को पचीस, कृपाचार्य को नौ, द्रोण को साठ, विकर्ण को तीन, शल्य को तीन, तथा राजा दुर्योधन को पांच बाणों से घायल कर दिया। उस समय सात्यकि, विराट, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पांचों पुत्र अभिमन्यु- इन सब ने अर्जुन को उनकी रक्षा के लिये चारों और से घेर लिया। तदनन्तर गंगानन्दन भीष्म का प्रिय करने में लगे हुए महाधनुर्धर द्रोणाचार्य पर सोमकों सहित धृष्टद्युम्न ने आक्रमण किया। राजन्! तब रथियों में श्रेष्ठ भीष्म ने पाण्डुनंदन अर्जुन को अस्सी पैने बाण मारकर बींध डाला। यह देखकर आपके सैनिक हर्ष से कोलाहल करने लगे। उन समस्त कौरवों का हर्षनाद सुनकर प्रतापी पुरुषसिंह अर्जुन ने उनकी सेना के भीतर प्रवेश किया। राजन! उन महारथियों के भीतर पहुँचकर अर्जुन उन सबको अपने बाणों का निशाना बनाकर धनुष से खेल करने लगे। तब प्रजा पालक राजा दुर्योधन अर्जुन के द्वारा अपनी सेना को पीड़ित हुई देख भीष्म से कहा- तात! ये पाण्डू बलवान पुत्र अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ आकर समस्त सैन्यों के प्रयत्नशील होने पर भी हमलोगों का मूलोच्छेद कर रहे है। गंगानन्दन! आपके तथा रथियो में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य के जीते-जी हमारे सैनिक मारे जा रहे है।[2]
अर्जुन तथा भीष्म का युद्ध
राजन! दुर्योधन के ऐसा कहने पर आपके पितृ-तुल्य भीष्म ‘क्षत्रिय-धर्म को धिक्कार है’ ऐसा कहकर अर्जुन के रथ की और चले। महाराज! उन दोनों के रथों में श्वेत घोडे़ जुते हुए थे। आर्य! उन्हे एक दूसरे से भिड़े हुए देख सब राजा जोर-जोर से सिंहनाद करने और शंख फूँकने लगे। आर्य! उस समय अश्वत्थामा, दुर्योधन और आपके पुत्र विकर्ण-ये सभी समरांगण में भीष्म को घेरकर युद्ध के लिये खड़े थे। इसी प्रकार समस्त पाण्डव भी अर्जुन को सब ओर से घेरकर महायुद्ध के लिये वहाँ डटे हुए थे, अतः उनमें भारी युद्ध छिड़ गया। गंगानन्दन भीष्म ने उस रणक्षेत्र में नौ बाणों से अर्जुन को गहरी चोट पहुँचायी। तब अर्जुन ने भी उन्हें दस मर्म भेदी बाणों द्वारा बींध डाला। तदनन्तर युद्ध की श्लाघा रखने वाले पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अच्छी तरह छोडे़ हुए एक हजार बाणों द्वारा भीष्म को सब ओर से रोक दिया। माननीय महाराज! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म ने अर्जुन के इस बाणसमूह का अपने बाणसमूह से निवारण कर दिया। वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष में भरकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे। दोनों ही दोनों के किये हुए प्रहार का प्रतीकार करते हुए समान भाव से युद्ध करने लगे। भीष्म के धनुष से छूटे हुए सायकों के समुह अर्जुन के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर बिखरे दिखायी देने लगे। इसी प्रकार अर्जुन के छोडे़ हुए बाणसमुह गंगानन्दन भीष्म के बाणों से छिन्न-भिन्न हो पृथ्वी पर सब और पड़े हुए थे। अर्जुन ने पचीस तीखे बाणों से मारकर भीष्म को पीड़ित कर दिया। फिर भीष्म ने भी समरभूमि में अपने तीक्ष्ण सायको द्वारा अर्जुन को बींध दिया। वे दोनों शत्रुओं का दमन करने वाले तथा अत्यन्त बलवान थे। अतः एक दूसरे के घोड़ों, ध्वजाओं, रथ के ईषा-दण्ड तथा पहियों को बाणों से बींधकर खेल-सा करने लगे।[2] महाराज! तदनन्तर प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ भीष्म ने कुपित होकर तीन बाणों से भगवान श्रीकृष्ण की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। राजन्! भीष्मजी के धनुष से छूटे हुए उन बाणों से विद्ध होकर भगवान मधुसूदन रणभूमि में रक्तरंजित हो खिले हुए पलाश के वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। श्रीकृष्ण को घायल हुआ देख अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने तीखे सायकों द्वारा कुरुकुल वृद्ध भीष्म के सारथि को विदीर्ण कर डाला। इस प्रकार वे दोनों वीर एक दूसरे के वध के लिये पूरा प्रयत्न कर रहे थे तथापि वे युद्धभूमि में परस्पर अभिसंधान (घातक प्रहार) करने में सफल न हो सके। वे दोनों अपने सारथि की शक्ति तथा शीघ्रकारिता के कारण नाना प्रकार के विचित्र मण्डल, आगे बढ़ने और पीछे हटने आदि पैंतरे दिखाने लगे।[3]
राजन! दोनों ही एक दूसरे के प्रहारों में छिद्र ढुंढ़ने के लिये सर्तक थे। वे बारंबार छिद्रोन्वेषण के मार्ग में स्थित हो छिद्र देखने के लिये संलग्न रहते थे। वे दोनों महारथी सिंहनाद से मिला हुआ शंखनाद करते और धनुष की टंकार फैलाते रहते थे। उनकी शंखध्वनि तथा रथ के पहियों की घरघराहट से पृथ्वी सहसा विदीर्ण-सी होकर कांपने और आर्तनाद करने लगी। भरतश्रेष्ठ! वे दोनों वीर बलवान्, युद्ध में दुर्जय तथा एक दूसरे के अनुरूप थे। अत: ढूढ़ने पर भी कोई उनमें से किसी का अन्तर न देख सका। उस समय कौरवों ने भीष्म को तालध्वज आदि चिह्न्र मात्र से ही पहचाना। इसी प्रकार पाण्डुपुत्रों ने भी कपिध्वज आदि चिह्न्र मात्र से ही पार्थ की पहचान की। भारत! उस संग्राम में उन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों के वैसे पराक्रम को देखकर सम्पूर्ण प्राणी बड़े विस्मय में पड़ गये। भरतनन्दन! जैसे कोई धर्मनिष्ठ पुरुष में कहीं कोई पाप नही देख पाता, उसी प्रकार कोई भी रणक्षेत्र में उन दोनों योद्धाओं का छिद्र नही देख पाता था। दोनों ही संग्रामभूमि में एक दूसरे के बाणसमूहों से आच्छादित होकर अदृश्य हो जाते और उन्हे छिन्न-भिन्न करके शीघ्र ही प्रकाश में आ जाते थे।
देवता, गन्धर्व, चारण और महर्षिगण का वार्तालाप
वहाँ आये हुए देवता, गन्धर्व, चारण और महर्षिगण उन दोनों का पराक्रम देखकर आपस में कहने लगे कि ये दोनों महारथी वीर रोषावेश में भरे हुए है; अतः ये देवता, असुर और गन्धर्वोसहित सम्पूर्ण लोकों के द्वारा भी किसी प्रकार जीते नही जा सकते। वह अत्यन्त अद्भूतयुद्ध यह सम्पूर्ण लोकों के लिये आश्चर्यजनक घटना है। भविष्य में ऐसे युद्ध होने की किसी प्रकार की सम्भावना नही है। बुद्धिमान पार्थ रणभूमि में भविष्य को कदापि जीत नही सकते क्योंकि वे समरभूमि में रथ, घोडे़ ओर धनुषसहित उपस्थित हो बाणों को बीज की भाँति बो रहे है। इसी प्रकार भीष्म भी युद्ध में देवताओ के लिये भी दुर्जय, गाण्डीवधारी पाण्डुपुत्र अर्जुन को जीतने में समर्थ नही हो सकते। यदि ये दोनों लड़ते रहे तो जब तक यह संसार स्थित है, तब तक इन दोनों का यह युद्ध समानरूप से ही चलता रहेगा। प्रजानाथ! इस प्रकार रणभूमि में भीष्म और अर्जुन की स्तुतिप् रशंसा से युक्त बहुत सी बातें इधर-उधर लोगो के मुँह से निकलती और सुनायी देती थी।
संजय कहते हैं -भारत! उस समय वहाँ उन दोनों वीरों के पराक्रम करते समय युद्धस्थल में आपके और पाण्डवपक्ष के योद्धा भी एक दूसरे को मार रहे थे। तीखी धारवाले खड्गों, चमचमाते हुए फरसों, अन्य अनेक प्रकार के बाणों तथा भाँति-भाँति शस्त्रों से दोनों सेनाओं के शूरवीर एक दूसरे को मारते थे। राजन्! यहाँ एक और इस प्रकार भयानक तथा अत्यन्त दारुण युद्ध चल रहा था, वही दूसरी और द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में भयंकर मुठभेड़ हो रही थी।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-22
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 52 श्लोक 23-49
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 52 श्लोक 50-72
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| भीष्म-दुर्योधन संवाद
| भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार
| अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण
| दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध
| कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना
| द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश
| कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध
| कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ
| भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण
| कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध
| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
| उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम
| अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना
| भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार
| अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना
| शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन
| भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना
| भीष्म की महत्ता
| अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना
| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद
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