- महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 40वें अध्याय में 'दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
सम्बन्ध- गीता के सातवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में तथा नवें अध्याय के ग्यारहवें और बारहवें श्लोकों में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि आसुरी और राक्षसी प्रकृति को धारण करने वाले मूढ़ मेरा भजन नही करते, वरं मेरा तिरस्कार करते हैं। तथा नवें अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोक में कहा कि ‘दैवी-प्रकृति से युक्त महात्माजन मुझे सब भूतों का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम के साथ सब प्रकार के निरन्तर मेरा भजन करते हैं।’ परन्तु दूसरा प्रसंग चलता रहने के कारण वहाँ दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन नहीं किया जा सका। फिर पन्द्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ‘जो ज्ञानी महात्मा मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानते हैं, वे सब प्रकार से मेरा भजन करते हैं।’ इस पर स्वाभाविक ही भगवान् को पुरुषोत्तम जानकर सर्वभाव से उनका भजन करने वाले दैवी-प्रकृति युक्त महात्मा पुरुषों के और उनका भजन न करने वाले आसुरी प्रकृति युक्त अज्ञानी मनुष्यों के क्या-क्या लक्षण है- यह जानने की इच्छा होती है। अतएव अब भगवान दोनों के लक्षण और स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये सोलहवां अध्याय आरम्भ करते हैं। इसमें पहले तीन श्लोकों द्वारा दैवी-सम्पदा से युक्त सात्त्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक अर्जुन से वर्णन करते हैं-
विषय सूची
कृष्ण का अर्जुन से दैवी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन करना
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता। मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतु रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। तेज,[2] क्षमा, धैर्य,[3] बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण है।[4][1]
हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड,[5] और अभिमान[6] तथा क्रोध,[7] कठोरता[8] और अज्ञान[9] भी ये सब आसुरी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण है।[10] दैवी सम्पदा मुक्ति के लिये[11] और आसुरी सम्पदा बांधने के लिये मानी गयी है। इसलिये हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है। हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है,[12] एक तो दैवी-प्रकृति वाला दूसरा आंसुरी प्रकृति वाला। उसमें से दैवी-प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन।
आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति-इन दोनों को ही नहीं जानते।[13] इसलिये उनमें न तो बाहर भीतर शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है। वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के,[14] अपने आप केवल स्त्री पुरुष संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है।[15]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-3
- ↑ श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति विशेष का नाम तेज है, जिसके कारण उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत हो जाते हैं।
- ↑ भारी से भारी आपत्ति, भय या दुःख उपस्थित होने पर भी विचलिन न होना काम, क्रोध, भय या लोभ में किसी प्रकार भी अपने धर्म और कर्तव्य विमुख न होना ‘धैर्य’ है।
- ↑ इस अध्याय में पहले श्लोक से लेकर इस श्लोक के पूर्वार्द्धतक ढाई श्लोकों में छब्बीस लक्षणों के रूप में उस दैवीसम्पद्रूप सद्गुण और सदाचार का ही वर्णन किया गया है। अतः ये सब लक्षण जिसमें स्वभाव से विघमान हों अथवा जिसनें साधन द्वारा प्राप्त कर लिये हो। वहीं पुरुष दैवी सम्पद से युक्त है।
- ↑ विद्या, धन, कुटुम्ब, जाति, अवस्था, बल और ऐश्वर्य आदि के सम्बन्ध से जो मन में गर्व होता है- जिसके कारण मनुष्य दूसरों को तुच्छ समझकर उनकी अवहेलना करता है, उसका नाम ‘घमण्ड’ है।
- ↑ अपने को श्रेष्ठ, बडा या पूज्य समझना, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा आदि की इच्छा रखना एवं इन सबके प्राप्त होने पर प्रसन्न होना ‘अभिमान’ है।
- ↑ बुरी आदत के अथवा क्रोधी मनुष्यों के संग के कारण या किसी के द्वारा अपना तिरस्कार, अपकार या निंदा किये जाने पर, मन के विरुद्ध कार्य होने पर, किसी के द्वारा दुर्वचन सुनकर या किसी का अन्याय देखकर-इत्यादि किसी भी कारण से अन्तःकरण में जो द्वेषयुक्त उत्तेजना हो जाती है-जिसके कारण मनुष्य के मन में प्रतिहिंसा के भाव जाग्रत हो उठते हैं, नेत्रों में लाली आ जाती है, होठ फड़कने लगते हैं, मुख की आकृति भयानक हो जाती है, बुद्धि मारी जाती है और कर्तव्य का विवेक नहीं रह जाता- इत्यादि किसी प्रकार की भी ‘उत्तेजित वृति’ का नाम ‘क्रोध’ है।
- ↑ कोमलता के अत्यन्त अभाव का नाम कठोरता है। किसी को गाली देना, कटुवचन कहना, ताने मारना आदि वाणी की कठोरता है, विनय का अभाव शरीर की कठोरता है तथा क्षमा और दया के विरुद्ध प्रतिहिंसा और क्रूरता के भाव को मन की कठोरता कहते हैं।
- ↑ सत्य-असत्य और धर्म-अधर्म आदि का यथार्थ न समझना या उनके सम्बन्ध में विपरित निश्चय कर लेना ही यहाँ ‘अज्ञान’ है।
- ↑ इस श्लोक में दुर्गुण और दुराचारों के समुदाय रूप आसुरी सम्पद संक्षेप में बतायी गयी हैं। अतः ये सब या इनमें से कोई भी लक्षण जिसमें विद्यमान हो, उसे आसुरी सम्पदा से युक्त समझना चाहिये।
- ↑ इसी अध्याय के पहले श्लोक से लेकर तीसरे श्लोक तक सात्त्विक गुण और आचरणों के समुदायरूप जिस दैवी-सम्पदा का वर्णन किया गया है, वह मनुष्य को संसार बन्धन से सदा के लिये सर्वथा मुक्त करके सच्चिदानन्दघन परमेश्वर से मिला देने वाली है- ऐसा वेद, शास्त्र और महात्मा सभी मानते हैं
- ↑ मनुष्यों के दो समुदाय में जो सात्त्विक है, वह तो दैवी प्रकृति वाला है और जो रजोमिश्रित तमःप्रधान है, वह आसुरी प्रकृति वाला है। ‘राक्षसी’ और ‘मोहिनी’ प्रकृति वाले मनुष्यों को यहाँ आसुरी प्रकृति वाले समुदाय के अन्तर्गत ही समझना चाहिये।
- ↑ जिस कर्म के आचरण से इस लोक और परलोक में मनुष्य का यथार्थ कल्याण होता है, वही कर्तव्य है। मनुष्य को उसी में प्रवृत होना चाहिये और जिस कर्म के आचरण से कल्याण होता है, वह अकर्तव्य हैं, उसे निवृत होना चाहियें। भगवान् ने यहाँ यह भाव दिखलाया है कि आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य इस कर्तव्य-अकर्तव्य सम्बन्धी प्रवृत्ति और निवृत्ति को बिल्कुल ही नहीं समझते इसीलियें जो कुछ उनके मन में आता है, वही करने लगते हैं।
- ↑ यहाँ आसुर प्रकृति वाले मनुष्य की मनगढ़ंत कल्पना का वर्णन किया गया है वे लोग ऐसा मानते हैं कि न तो इस चराचर जगत का भगवान या कोई धर्माधर्म ही आधार है तथा न इस जगत् की कोई नित्य सत्ता है। अर्थात् न तो जन्म से पहले या मरने के बाद किसी भी जीव का अस्तित्व है एवं न कोई इसका रचयिता, नियामक ओैर शासक ईश्वर ही हैं।
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 40 श्लोक 4-11
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