- महाभारत भीष्म पर्व मेंं भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 118वें अध्याय मेंं 'भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
भीष्म का अद्भुत पराक्रम करते हुए पांडव सेना का भीषण संहार
संजय कहते हैं - भरतनन्दन! दोनों पक्ष की सेनाओं को समान रूप से व्यूहबंद करके खड़ा किया गया था। अधिकांश सैनिक उस व्यूह में ही स्थित थे। वे सब के सब युद्ध में पीठ न दिखाने वाले तथा ब्रह्मलोक को ही अपना परम लक्ष्य मानकर युद्ध में तत्पर रहने वाले थे। परंतु उस घमासान युद्ध में (सेनाओं का व्यूह भंग हो गया और युद्ध के निश्चित नियमों का उल्लघंन होने लगा) सेना, सेना के साथ योग्यतानुसार नहीं लड़ती थी, न रथी रथियों के साथ युद्ध करते थे, न पैदल पैदलों के साथ। घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और हाथी सवार हाथी सवारों के साथ नहीं लड़ते थे। भरतवंशी महाराज! सब लोग उन्मत्त से होकर वहाँ योग्यता का विचार किये बिना सबके साथ युद्ध करते थे। उन दोनों सेनाओं में अत्यन्त भयंकर घोलमेल हो गया। इसी तरह मनुष्य और हाथियों के समूह सब ओर बिखर गये थे। उस महाभयंकर युद्ध में किसी की कोई विशेष पहचान नहीं रह गयी थी। भरत! तदनन्तर शल्य, कृपाचार्य, चित्रसेन, दुःशासन और विकर्ण-ये कौरववीर चमचमाते हुए रथों पर बैठकर पाण्डवों पर चढ़ आये और रणक्षेत्र में उनकी सेना को कंपाने लगे। राजन! जैसे वायु के थपेड़े खाकर नौका जल में चक्कर काटने लगती है, उसी प्रकार उन मामनस्वी वीरों द्वारा समरागंण में मारी जाती हुई पांडव सेना बहुधा इधर-उधर भटक रही थी। जैसे शिशिरकाल गोओं के मर्म स्थानों का उच्छेद करने लगता है, उसी प्रकार भीष्म पाण्डवों मर्मस्थानों को विदीर्ण करने लगे।
इसी प्रकार महात्मा अर्जुन ने आपकी सेना के नूतन मेघ के समान काले रंगवाले बहुत से हाथी मार गिराये। अर्जुन के द्वारा बहुत से पैदलों के यूथपति मिट्टी में मिलते दिखायी दे रहे थे। नाराचों और बाणों से पीड़ित हुए सहस्रों महान गज घोर आर्तनाद करके पृथ्वी पर गिर रहे थे। मारे गये महामनस्वी वीरों के आमरणभूषित शरीरों और कुण्डल मण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई वह रणभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। महाराज! बड़े-बड़े़ वीरों का विनाश करने वाले उस महायुद्ध में जब एक ओर भीष्म ओर दूसरी ओर पाण्डुनन्दन धनंजय पराक्रम प्रकट कर रहे थे। उस समय पितामह भीष्म को महान पराक्रम में प्रवृत देख आपके सभी पुत्र सेनाओं के साथ स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बनाकर युद्ध में मृत्यु चाहते हुए पाण्डवों पर चढ आये। राजन! नरेश्वर! शूरवीर पाण्डव भी पुत्रों सहित आपके दिये हुए नाना प्रकार के अनेक क्लेशों का स्मरण करके युद्ध में भय छोड़कर ब्रह्मलोक आने के लिये उत्सुक हो बड़ी प्रसन्नता के साथ आपके सैनिकों और पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय समर भूमि में पाण्डव सेनापति महारथी धृष्टद्युम्न ने अपनी सेना से कहा- ‘ सोम को! तुम संजय वीरों को साथ लेकर गंगानन्दन भीष्म पर टूट पड़े।’ सेनापति की यह बात सुनकर सोमक और सृंजय वीर बाणों की भारी वर्षा से घायल होने पर भी गंगानन्दन भीष्म की ओर दौड़े।
राजन! तब आपके पितृतुल्य शान्तनुनन्दन भीष्म बाणों की मार खाकर अमर्षमें भर गये और सृंजयों के साथ युद्ध करने लगे। तात! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान परशुरामजी ने उन यशस्वी भीष्म को शत्रु सेना का विनाश करने वाली जो अस्त्र शिक्षा प्रदान की थी, उसका आश्रय लेकर पाण्डव पक्षीय शत्रुसेना का संहार करते हुए कुरूकुल के वृद्ध पितामह एवं शत्रुवीरों का नाश करने वाले भीष्म नित्य प्रति दस हजार मुख्य योद्धाओं का वध करते आ रहे थे।[1] भरतश्रेष्ठ! उस दसवें दिन के आने पर एकमात्र भीष्म ने युद्ध में मत्स्य और पांचाल देश की सेनाओं के अगणित हाथी, घोड़ों को मारकर सात महारथियों का वध कर डाला। प्रजानाथ! फिर पांच हजार रथियों का वध करके आपके पितृतुल्य भीष्म ने अपने अस्त्र शिक्षाबल से उस महायुद्ध में चौदह हजार पैदल सिपाहियों, एक हजार हाथियों और दस हजार घोड़ों का संहार कर डाला। तदनन्तर समस्त भूमिपालों की सेना का उच्छेद करके राजा विराट के प्रिय भाई शतानीक को मार गिराया। महाराज! शतानीक को रणक्षेत्र में मारकर प्रतापी भीष्म ने भल्ल नामक बाणों द्वारा एक हजार नरेशों को धराशायी कर दिया।[2]
उस रणक्षेत्र में समस्त योद्धा भीष्म के भय से उद्विग्न हो अर्जुन को पुकारने लगे। पाण्डव पक्ष के जो कोई नरेश अर्जुन के साथ गये थे, वे भीष्म के सामने पहुँचते ही यमलोक के पथिक हो गये। इस प्रकार भीष्म ने दसों दिशाओं में सब ओर अपने बाणों का जाल-सा बिछा दिया और कुन्ती कुमारों की सेना को परास्त करके वे सेना के प्रमुख भाग में स्थित हो गये। दसवें दिन यह महान पराक्रम करके हाथ में धनुष लिये वे दोनों सेनाओं के बीच में खडे़ हो गये। राजन! जैसे ग्रीष्म ऋतु में आकाश के मध्य भाग में पहुँचे हुए दोपहर के तपते हुए सूर्य की ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उस समय कोई राजा भीष्म की ओर आंख उठाकर देखेने का भी साहस न कर सके। भारत! जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र ने संग्राम भूमि में दैत्यों की सेना को संतप्त किया था, उसी प्रकार भीष्मजी पाण्डव योद्धाओं को संताप दे रहे थे।
कृष्ण द्वारा अर्जुन को भीष्म से युद्ध करने के लिये प्रेरित करना
उन्हें इस प्रकार पराक्रम करते हुए देख मधु दैत्य को मारने वाले देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रसन्नतापूर्वक कहा-‘अर्जुन! ये शान्तनुनन्दन भीष्म दोनों सेनाओं के बीच में खड़े हैं। यदि तुम बलपर्वक इन्हें मार सको तो तुम्हारी विजय हो जायेगी। ‘जहाँ ये इस सेना का संहार कर रहे हैं, वहीं पहुँचकर इन्हें बलपूर्वक स्तम्भित कर दो (जिससे ये आगे या पीछे किसी ओर हट न सके)। विभो! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो भीष्म के बाणों की चोट सह सके। राजन! इस प्रकार भगवान से प्रेरित होकर कपि ध्वज अर्जुन ने उसी क्षण अपने बाणों द्वारा ध्वज, रथ और घोड़ों सहित भीष्म को आच्छादित कर दिया। कुरुश्रेष्ठ वीरों में प्रधान भीष्म ने भी अपने बाण समूहों द्वारा अर्जुन के चलाये हुए बाण समुदाय के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तत्पश्चात उत्तम गांठ और तीखी धारवाले वज्रतुल्य बाणों द्वारा वे पुनः पाण्डव महारथियों का शीघ्रतापूर्वक वध करने लगे।
अर्जुन और अन्य पाडंव वीरों का भीष्म से युद्ध
इसी समय पांचालराज द्रुपद, पराक्रमी धृष्टकेतु, पाण्डुनन्दन भीमसेन, द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न, नकुल-सहदेव, चेकितान, पांच केकय राजकुमार, महाबाहु सात्यकि, सुभद्राकुमार अभिमन्यु, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, शिखण्डी, पराक्रमी कुन्तिभोज, सुशर्मा तथा विराट- ये और दूसरे भी बहुत से महाबली पाण्डव सैनिक भीष्म के बाणों से पीड़ित हो शोक के समुद्र में डूब रहे थे, परंतु अर्जुन ने उन सबका उद्धार कर दिया। तब शिखण्डी अपने उत्तम अस्त्र-शस्त्रों को लेकर बड़े वेग से भीष्म की ही ओर दौड़ा। उस समय किरीटधारी अर्जुन उसकी रक्षा कर रहे थे। तत्पश्चात युद्ध विभाग के अच्छे ज्ञाता और किसी से भी परास्त न होने वाले अर्जुन ने भीष्म के पीछे चलने वाले समस्त योद्धाओं को मारकर स्वयं भी भीष्म पर ही धावा किया।[2] इनके साथ सात्यकि, चेकितान, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद,माद्रीकुमार पाण्डुपुत्र नकुल-सहदेव ने भी युद्ध में भीष्म पर ही आक्रमण किया। ये सब-के-सब सुद्रढ़ धनुष् धारण करने वाले अर्जुन से सुरक्षित थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र और अभिमन्यु भी महान अस्त्र-शस्त्र लिये उस समरागंण में भीष्म की ही ओर दौड़े। ये सभी वीर सुद्रढ़ धनुष धारण करने वाले और युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले थे। इन्होंने शत्रुओं के बाणों को नष्ट करने वाले सायकों द्वारा भीष्म को बारम्बार पीड़ित किया।
परंतु उदारचेता भीष्म उन श्रेष्ठ राजाओं के छोड़ते हुए समस्त बाण समूहों का नाश करके पाण्डवों की विशाल सेना में घुस गये। वहाँ पितामह भीष्म खेल-सा करते हुए अपने बाणों द्वारा पाण्डव सैनिकों के अस्त्र-शस्त्रों का विनाश करने लगे। परंतु शिखण्डी के स्त्रीत्व का स्मरण करके वे बारम्बार मुसकराकर रह जाते थे, उन पर बाण नहीं चलाते थे। महारथी भीष्म ने द्रुपद की सेना के सात रथियों को मार डाला। तब एकमात्र भीष्म पर धावा करने वाले मत्स्य, पांचाल और चेदिदेश के योद्धाओं का महान कोलाहल क्षणभर में वहाँ गूंज उठा। परंतप! जैसे बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार उन वीरों ने पैदल, घुड़सवार तथा रथियों के समुदाय से एवं बहुसंख्यक बाणों द्वारा भीष्म को आच्छादित कर दिया। उस समय गंगानन्दन भीष्म अकेले युद्ध के मैदान में शत्रुओं को अत्यन्त संतप्त कर रहे थे। तदनन्तर भीष्म तथा उन योद्धाओं में देवासुर- संग्राम के समान भयंकर युद्ध होने लगा। इसी बीच में किरीटधारी अर्जुन शिखण्डी को आगे करके भीष्म के समीप जा पहुँचे।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-22
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 118 श्लोक 23-44
- ↑ महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 118 श्लोक 45-54
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| कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन
| भीष्म का अद्भुत पराक्रम
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| उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
| अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना
| अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
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