कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 89वें अध्याय में 'संजय द्वारा धृतराष्ट्र से कौरव-पांडव सेना के बीच घमासान युद्ध और उससे हुए भयानक जनसंहार' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

संजय का धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर देना

धृतराष्ट्र बोले- संजय! एकमात्र भीमसेन के द्वारा युद्ध में मेरे बहुत से पुत्रों को मारा गया देख भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य ने क्या किया ? मेरे पुत्र प्रतिदिन नष्ट होते जा रहे हैं। सूत! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि हमलोग सर्वथा अत्यन्त दुर्भाग्य के मारे हुए हैं। दुर्भाग्य के अधीन होने के कारण ही मेरे पुत्र हारते जा रहे हैं, विजयी नहीं हो रहे हैं। जहाँ भीष्म, द्रोण, महामना कृपाचार्य, वीरवर भूरिश्रवा, भगदत्त, अश्वत्थामा तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अन्य शूरवीरों के बीच में रहकर भी मेरे पुत्र प्रतिदिन संग्राम में मारे जाते है, वहाँ दुर्भाग्य के सिवा और क्या कारण हो सकता है? मूर्ख दुर्योधन ने पहले मेरी कही हुई बातों पर ध्यान नहीं दिया। तात! मैंने, भीष्म ने, विदुर ने तथा गान्धारी ने भी सदा हित की इच्छा से दुर्बुद्धि दुर्योधन को बार-बार मना किया परंतु मोहवश पूर्वकाल में हमारी यह बातें उसके समझ में नहीं आयी। उसी का यह फल अब प्राप्त हुआ है, जिससे भीमसेन समरांगण में कुपित होकर मेरे मुर्ख पुत्रों को प्रतिदिन यमलोक भेज रहा है।

संजय ने कहा- प्रभो! उस समय आपने जो विदुर जी के कहे हुए उत्तम एवं हितकारक वचन को नहीं सुना ( सुनकर भी उस पर ध्यान नहीं दिया), उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा था कि आप अपने पुत्रों को जूआ खेलने से रोकिये। पाण्डवों से द्रोह न कीजिये। आपका हित चाहने वाले अन्यान्‍य सुहृदों ने भी आपसे वे ही बातें कही थी; परंतु जैसे मरणासन्न पुरुष को हितकारक औषधि अच्छी नही लगती, उसी प्रकार आप उन हितकर वचनों को सुनना भी नहीं चाहते थे। अतः श्रेष्ठ विदुर ने जैसा बताया था, वैसा ही परिणाम आपके सामने आया है। विदुर, द्रोण, भीष्म तथा अन्य हितैषियों के हितकर वचनों को न मानने के कारण इन कौरवों का विनाश हो रहा है। प्रजापालक नरेश! यह सब तो पहले से ही प्राप्त है। अब आप जिस प्रकार युद्ध हुआ, उसका यथावत् समाचार सुनिये।

कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध

राजन्! उस दिन दोपहर होते-होते बड़ा भंयकर संग्राम होने लगा, जो सम्पूर्ण जगत के योद्धाओं का विनाश करने वाला था। वह सब मैं कह रहा हूँ सुनिये। तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिर के आदेश से क्रोध में भरी हुई उनकी सारी सेनाएँ भीष्म पर ही टूट पडी। वे भीष्म को मार डालना चाहती थी। महाराज! धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा महारथी सात्यकि इन सबने अपनी सेनाओं के साथ भीष्म पर ही आक्रमण कर दिया। राजा विराट और सम्पूर्ण सोमको सहित द्रुपद ने संग्राम में महारथी भीष्म पर ही चढ़ाई की। नरेश्वर! केकय, धृष्टकेतु और कवचधारी कुन्तिभोज इन सबने अपनी सेनाओं के साथ भीष्म पर ही धावा किया। अर्जुन, द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी चेकितान ये दुर्योधन के भेजे हुए समस्त राजाओं पर चढ़ आये। शूरवीर अभिमन्यु, महारथी घटोत्कच तथा क्रोध में भरे हुए भीमसेन-इन सबने कौरवों पर धावा किया। राजन्! पाण्डवों ने तीन दलों में विभक्त होकर कौरवों का वध आरम्भ किया।

इसी प्रकार कौरव भी रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने लगे। द्रोणाचार्य ने श्रेष्ठ रथी सोमकों और सृज्जयों को यमलोक भेजने के लिए क्रोधपूर्वक उनके ऊपर धावा बोल दिया।[1] राजन्! धनुर्धर द्रोणाचार्य के द्वारा समरभूमि में मारे जाते हुआ महामना सृज्जयों का महान आर्तनाद सुनायी देने लगा द्रोणाचार्य के मारे हुए बहुत से क्षत्रिय रणभूमि में व्याधि ग्रस्त मुनष्यों की भाँति छटपटाते हुए दिखायी देते थे। भरतनन्दन! भूख से पीड़ित मनुष्यों की भाँति कूजते, क्रन्दन करते और गरजते हुए योद्धाओं का शब्द निरन्तर सुनायी देता था। इसी प्रकार महाबली भीमसेन क्रोध में भरे हुए दूसरे काल के समान कौरव सैनिकों का घोर संहार करने लगे। उस महायुद्ध में परस्पर मार-काट करने वाले सैनिकों की रक्तराशि को प्रवाहित करने वाली एक भयंकर नदी बह चली।[2]

भयानक जनसंहार

महाराज! कौरवों और पाण्डवों का वह घोर महासंग्राम यमलोक की वृद्धि करने वाला था। तब युद्ध में विशेष वेगशाली भीमसेन ने कुपित हो हाथियों की सेना में प्रवेश कर उन्हें काल के गाल में भेजना आरम्भ किया। भारत! वहाँ भीम के नाराचों से पीड़ित हाथी गिरते, चिग्घाड़ते, बैठ जाते अथवा सम्पूर्ण दिशाओं में चक्कर लगाने लगते थे। आर्य! सूँड़ तथा दूसरे-दूसरे अंगों के कट जाने से हाथी भयभीत हो क्रोच्च पक्षी की भाँति चीत्कार करते और धराशायी हो जाते थे। नकुल और सहदेव ने घुड़सवारों की सेना पर आक्रमण किया। राजन्! उन घोड़ों ने सोने की कलँगी तथा सोने के ही अन्य आभूषण धारण किये थे। वे सब सैकड़ों और सहस्रों की संख्या में मरकर गिरते दिखायी देते थे। राजन्! वहाँ गिरते हुए घोड़ों की लाशों से सारी पृथ्वी पट गयी। किन्ही की जीभ निकल आयी थी, कोई लंबी साँस खींच रहे थे, कोई धीरे-धीरे अव्यक्त शब्द करते और कितनों के प्राण निकल गये थे। नरश्रेष्ठ! इस प्रकार विभिन्न रूपधारी घोड़ों से आच्छादित होने के कारण इस पृथ्वी की अद्भुत शोभा हो रही थी। भारत! प्रजानाथ! जहाँ-जहाँ अर्जुन के द्वारा युद्ध में मारे गये राजाओं से भरी हुई वह रणभूमि बड़ी भयानक जान पड़ती थी। राजन्! टूटे हुए रथ, कटे हुए ध्वज, छिन्न-भिन्न हुए बड़े-बडे़ आयुध, चवँर, व्यजन, अत्यन्त प्रकाशमान छत्र, सोने के हार, केयूर, कुण्डलमण्डित मस्तक, गिरे हुए शिरोभूषण (पगड़ी आदि), पताका, सुन्दर अनुकर्ष,[3] जोत और बागडोर आदि से आच्छादित हुई वह संग्राम भूमि ऐसी जान पड़ती थी, मानो वसन्त ऋतु में उस पर भाँति-भाँति के फूल गिरे हुए हो। भारत! शान्तनुनन्दन भीष्म, रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा- इनके कुपित होने से पाण्डव सैनिकों का भी इस प्रकार यह संहार हुआ था। साथ ही पाण्डवों के कुपित होने से आपके योद्धाओं का भी ऐसा ही विकट विनाश हुआ था।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-22
  2. 2.0 2.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 89 श्लोक 23-40
  3. रथ के नीचे रहने वाली लकड़ी को अनुकर्ष कहते हैं, जिसके सहारे पहिए रहते हैं।

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