अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति

महाभारत भीष्म पर्व में भीष्मवध पर्व के अंतर्गत 59वें अध्याय में 'अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन द्वारा कौरव सेना के विनाश का निश्चय करना

श्रीकृष्ण भीष्म द्वारा पांडव सेना के विध्वंस को देखकर क्रोधित हुए। वह सुदर्शन चक्र धारण करके युद्धभूमि में कूद पड़े और भीष्म की ओर बढ़ने लगे। तब किरीटधारी अर्जुन ने भीष्म के निकट बड़े वेग से जाते हुए श्रीहरि के चरणों को बलपूर्वक पकड़ लिया और किसी प्रकार दसवें कदम पर पहुँचते-पहुँचते उन्‍हें रोका। जब श्रीकृष्ण खडे़ हो गये, तब सुवर्ण का विचित्र हार पहने हुए अर्जुन ने अत्‍यंत प्रसन्न हो उनके चरणों में प्रणाम करके कहा- ‘केशव! आप अपना क्रोध रोकिये। प्रभो! आप ही पाण्‍डवों के परम आश्रय हैं। केशव! अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कर्तव्य का पालन करुंगा, उसका त्याग कभी नहीं करुंगा, यह बात मैं अपने पुत्रों और भाईयों की शपथ खाकर कहता हूँ। उपेन्द्र! आपकी आज्ञा मिलने पर मैं समस्त कौरवों का अंत कर डालूंगा। अर्जुन की यह प्रतिज्ञा और कर्तव्य-पालन का यह निश्चय सुनकर भगवान श्रीकृष्ण का मन प्रसन्न हो गया। वे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन का प्रिय करने के लिये उद्यत हो पुनः चक्र लिये रथ पर जा बैठे। शत्रुओं का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण पुनः घोड़ों की बागडोर सँभाली और पांचजन्य शंख लेकर उनकी ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित कर दिया। उस समय उनके कण्ठ का हार, भुजाओं के बाजुबन्द और कानों के कुण्डल हिलने लगे थे। उनके कमल के समान सुन्दर नेत्रों पर सेना से उठी हुई धूल बिखरी थी। उनकी दन्तावली शुद्ध एवं स्वच्छ थी और उन्‍होंने अपने हाथ में शंख ले रखा था। उस अवस्था में श्रीकृष्ण को देखकर कौरव पक्ष के प्रमुख वीर कोलाहल कर उठे। तत्‍पश्‍चात कौरवों के सम्पूर्ण सैन्यदलों में मृदंग, भेरी, पणव तथा दुन्दुभि की ध्वनि होने लगी। रथ के पहियों की घरघराहट सुनायी देने लगी। वे सभी शब्द वीरों के सिंहनाद से मिलकर अत्यन्त उग्र प्रतीत हो रहे थे। अर्जुन के गाण्डीव धनुष का गम्भीर घोष मेघ की गर्जना के समान आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया तथा उनके धनुष से छूटे हुए निर्मल एवं स्वच्छ बाण सम्पूर्ण दिशाओं में बरसने लगे।[1]

अर्जुन द्वारा कौरव सेना का विध्वंस करना

संजय कहते हैं- महाराज! उस समय कौरवराज दुर्योधन हाथ में धनुष-बाण लिये बड़े वेग से अर्जुन के सामने आया, मानो घास-फूँस जलाने के लिये प्रज्वलित आग बढ़ती चली जा रही हो। भीष्म और भूरिश्रवा ने भी दुर्योधन का साथ दिया। तदनन्तर भूरिश्रवा ने सोने के पंख से युक्त सात भल्ल अर्जुन पर चलाये। दुर्योधन ने भयंकर वेगशाली तोमर का प्रहार किया। शल्य ने गदा और शान्तनुनन्दन भीष्म ने शक्ति चलायी। अर्जुन ने सात बाणों से भूरिश्रवा के छोड़े हुए सातों भल्लों को काटकर तीखे छुरे से दुर्योधन की भुजाओं से मुक्त हुए उस तोमर को भी नष्ट कर दिया।[1] तत्‍पश्चात् वीर अर्जुन ने शान्तनुनन्दन भीष्म की छोड़ी हुई बिजली के समान चमकीली और शोभामयी शक्ति को तथा मद्रराज शल्य की भुजाओं से मुक्त हुई गदा को भी दो बाणों से काट दिया। तदनन्तर अप्रमेय शक्तिशाली विचित्र गाण्डीव धनुष दोनों भुजाओं से बलपूर्वक खींचकर अर्जुन ने विधिपूर्वक अत्यन्त भयंकर महेन्द्र अस्त्र को प्रकट किया। वह अदभुत अस्त्र अंतरिक्ष में चमक उठा। फिर किरीटधारी महामना महाधनुर्धर अर्जुन ने उस उत्तम अस्त्र द्वारा निर्मल एवं अग्नि के समान प्रज्जलित बाणों का जाल-सा बिछाकर कौरवों के समस्त सैनिकों को आगे बढ़ने से रोक दिया। अर्जुन ने धनुष से छूटे हुए बाण शत्रुओं के रथ, ध्वजाग्र, धनुष और बाहु काटकर नरेशों, गजराजों तथा घोड़ों के शरीर में घुसने लगे। तदनन्तर तीखी धार वाले बाणों से युद्ध स्थल में सम्‍पूर्ण दिशाओं और कोणों की आच्छादित करके किरीटधारी अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार से कौरवों के मन में भारी व्यर्था उत्पन्न कर दी।

इस प्रकार उस अत्यन्त भयंकर युद्ध में शंख-ध्वनि, दुन्दुभि-ध्वनि तथा घोड़ों और रथ के पहियों के भयंकर शब्द गाण्डीव धनुष की टंकार के सामने दब गये। तब उस गाण्डीव के शब्द को पहचानकर राजा विराट आदि प्रमुख वीर और वीरवर पांचालराज द्रुपद- ये सभी उदारचित नरेश उस स्थान पर आ गये। जहां-जहाँ गाण्डीव धनुष की टंकार होती, वहां-वहाँ आप के सारे सैनिक मस्तक टेक देते थे। कोई भी उसके प्रतिकूल आक्रमण नहीं करता था। राजाओं के उस भयानक संग्राम में रथ, घोड़े और सारथि सहित बड़े-बड़े़ वीर मारे गये। सुन्दर सुनहरे रस्सों से कसे हुए, बड़ी-बड़ी पताकाओं वाले हाथी नाराचों की मार से पीड़ित हो शक्ति और चेतना खोकर सहसा धराशायी हो गये। कुन्तीकुमार अर्जुन के भयंकर वेगवाले तीखे एवं पंखयुक्त निर्मल भल्लों से गहरी चोट पड़ने पर कवच और शरीर दोनों के विदीर्ण हो जाने से कौरव सैनिक सहसा प्राणशून्य होकर गिर जाते थे। युद्ध के मुहाने पर जिनके यन्त्र कट गये और इन्द्रकील नष्ट हो गये थे, ऐसे बड़े-बड़े़ ध्वज छिन्न-भिन्न होकर गिरने लगे। अब संग्राम में अर्जुन के बाणों से घायल पैदलों के समूह, रथी, घोड़े आदि हाथी शीघ्र ही सत्त्वशून्‍य होकर अपने अंगों को पकडे़ हुए पृथ्वी पर गिरने लगे। राजन! उस महान ऐन्द्रास्त्र से समरभूमि में सभी सैनिकों के शरीर और कवच छिन्न-भिन्न हो गये।

उस समय समरांगण में किरीटधारी अर्जुन ने अपने तीखे बाण समूहों द्वारा योद्धाओं के शरीर में लगे हुए आघात से निकलने वाले रक्त की एक भयंकर नदी बहा दी; जिसमें मनुष्‍यों के मेदे फेन के समान जान पड़ते थे। वह नदी बड़े वेग से बह रही थी। उसका प्रवाह पुष्ट था। मरे हुए हाथी, घोड़ों के शरीर तटों के समान प्रतीत होते थे। राजाओं के मज्जा ओर मांस कीचड़ के समान थे। बहुत-से राक्षस और भूतगण उनका सेवन करते थे। मुर्दों की खोपड़ियों के केश से वार का भ्रम उत्पन्न करते थे। सहस्रों शरीर उसमें जल-जन्तुओं के समान बह रहे थे। छिन्न-भिन्न होकर बिखरे हुए कवच लहरों के समान उसमें सर्वत्र व्याप्त थे। मनुष्‍यों, घोड़ों और हाथियों की कटी हुई हड्डियां छोटे-छोटे कंकड़ पत्थरों का काम दे रही थी।[2] उसके दोनों किनारों पर कुत्ते, कौवे, भेड़िये, गीध, कंक, तरक्षु[3] तथा अन्यान्य मासभक्षी जंतु निवास करते थे। उस भयानक नदी को लोगों ने महावैतरणी के समान देखा। अर्जुन के बाणसमूहों से उस नदी का प्राकट्य हुआ था। वह चर्बी, मज्जा, तथा रक्त बहाने के कारण बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। इस प्रकार कौरव सेना के प्रधान-प्रधान वीर अर्जुन के द्वारा मारे गये। यह देखकर चेदि, पांचाल, करूष और मत्‍स्‍यदेश के क्षत्रिय तथा कुन्ती के पुत्र- ये सभी नरवीर विजय पाने से निर्भय हो कौरव योद्धाओं को भयभीत करते हुए एक साथ सिंहनाद करने लगे। शत्रुओं को भय देने वाले किरीटधारी अर्जुन के द्वारा कौरवसेना के प्रमुख वीरों को मारे गये देख पाण्डव पक्ष के वीरों को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। गाण्डीवधारी अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण मृगों के यूथों को भयभीत करने वाले सिंह के समान कौरव सेनापतियों की सारी सेना को संत्रस्त करके अत्यन्त हर्ष से भरकर गर्जना करने लगे।[4]

तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति

इस प्रकार शस्त्रों के आघात से अत्यन्त क्षत-विक्षत अंगों वाले भीष्म, द्रोण, दुर्योधन, वाह्लीक तथा अन्य कौरव योद्धाओं ने सूर्य देव को अपनी किरणों को समेटते देख और उस भयंकर ऐन्द्रास्त्र को प्रलयकर अग्नि के समान सर्वत्र व्याप्त एवं असंहार हुआ जानकर सूर्य की लीला से युक्त संध्या एवं निशा के आरम्भ काल का अवलोकन कर सेना को युद्धभूमि से लौटा लिया। धनंजय भी शत्रुओं को जीतकर एवं लोक में सुयश और सुकीर्ति पाकर भाईयों तथा राजाओं के साथ सारा कार्य समाप्त करके निशा के आरम्भ में अपने शिविर को लौट गये। उस समय रात्रि के आरम्भ में कौरवों के दल में बड़ा भयंकर कोलाहल होने लगा। वे आपस में कहने लगे- ‘आज अर्जुन ने रणक्षेत्र में दस हजार रथियों का विनाश करके सात सौ हाथी मार डाले है। प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव सभी क्षत्रियगणों को मार गिराया। धनंजय ने जो महान पराक्रम किया है, उसे दूसरा कोई वीर नहीं कर सकता। श्रुतायु, राजा अम्बष्ठपति, दुर्मर्षण, चित्रसेन, द्रोण, कृप, जयद्रथ, बाल्हिक, भूरिश्रवा, शल्य और शल- ये तथा और भी सैकड़ों योद्धा क्रोध में भरे हुए लोकमहारथी, किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा रणभूमि में अपनी ही भुजाओं के पराक्रम से भीष्मसहित परास्त किये गये है’। भारत! उपर्युक्त बातें कहते हुए आपके समस्त सैनिक सहस्रों जलती हुई मसाले तथा प्रकाशमान दीपों के उजाले में अपने-अपने शिविर में गये। कौरव सेना के सम्पूर्ण सैनिकों पर अर्जुन का त्रास छा रहा था। इसी अवस्था में उस सेना ने रात में विश्राम किया।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 99-111
  2. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 112-126
  3. सई जंतु, जिसके बदन में काँटें होते हैं।
  4. 4.0 4.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 127-139

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