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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
51. गीता में ‘यज्ञ’ शब्द की व्यापकता
फिर पंद्रहवें श्लोक में भगवान् ‘एवं ज्ञात्वा.....’ पदों से कहते हैं कि इस प्रकार जानकर मुमुक्ष् पुरुषों ने भी कर्म किये हैं, इसलिए तू भी कर्म ही कर- ‘कुरु कर्मैव’। सोलहवें श्लोक में कर्मों से निर्लिप्त रहने के इसी तत्त्व को विस्तार से कहने के लिए भगवान् प्रतिज्ञा करते हैं और ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ पदों से उसे जानने का फल मुक्त होना बताते हैं। यही बात भगवान् उस विषय का उपसंहार करते हुए ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्य से’[1] पदों से कहते हैं। इस प्रकार कर्तृत्वाभिमान और आसक्ति से रहित होकर किए गये संपूर्ण शुभ कर्म ‘यज्ञ’ के अंतर्गत आ जाते हैं। गीता में कहीं तो यज्ञ, दान और तप- इन तीन शुभ कर्मों का वर्णन आता है,[2] कहीं यज्ञ, दान, तप और वेदाध्ययन- इन चार शुभ कर्मों का वर्णन आता है,[3] और कहीं यज्ञ, दान, तप वेदाध्ययन और क्रिया- इन पाँच शुभ कर्मों का वर्णन आता है।[4] वास्तव में तो एक यज्ञ के उल्लेख से ही संपूर्ण शुभ कर्मों का उल्लेख हो जाता है। तीसरे अध्याय के दसवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि सृष्टि के आदि में प्रजापति ब्रह्मा जी ने यज्ञों के सहित प्रजा की रचना की- ‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा’। यहाँ ‘प्रजाः’ पद के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी आ जाते हैं और उसके साथ ‘सहयज्ञाः’ विशेषण देने से यह शंका होती है कि यज्ञ में सबका अधिकार तो है नहीं, फिर भगवान् ने सारे प्रजाजनों के साथ यह विशेषण क्यों लगाया? इसका समाधान यही है कि यहाँ उस यज्ञ की बात नही है, जिसमें सबका अधिकार नहीं। यहाँ ‘यज्ञ’ शब्द कर्तव्यकर्मों का वाचक है। अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदि के अनुसार प्राप्त सभी कर्तव्यकर्म ‘यज्ञ’ के अंतर्गत आ जाते हैं। दूसरे के हित की भावना से किये जाने वाले सब कर्म भी ‘यज्ञ’ ही हैं। ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’[5] पदों से अपने कर्तव्य-कर्मों के द्वारा परमात्मा का पूजन करने की जो बात कही गयी है, वह भी ‘यज्ञ’ के ही अंतर्गत है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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