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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
51. गीता में ‘यज्ञ’ शब्द की व्यापकता
संखिया, भिलावा आदि जो जहर हैं, उनको जब वैद्यलोग शुद्ध करके औषधरूप में दते हैं, तब वे जहर भी अमृत की तरह होकर बड़े-बड़े रोगों को दूर करने वाले बन जाते हैं। इसी तरह कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि सब जहररूप है। कर्मों में से इस जहर के भाग को निकाल देने से वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरण रूप महान् रोग को दूर करने वाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही ‘यज्ञ’ कहलाते हैं। सबके मूल हैं- परमात्मा। परमात्मा से वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्यपालन की विधि बताते हैं। मनुष्य उस विधि से कर्तव्यपालन करते हैं। कर्तव्यपालन से यज्ञ होता है और यज्ञ से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न होता है, अन्न से प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियों में से मनुष्य कर्तव्यपालन से यज्ञ करते हैं।[1] इस तरह यह सृष्टि चक्र चल रहा है। परमात्मा सर्वव्यापी होने पर भी कर्तव्य कर्मरूप यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं- ‘तस्मात्सर्गगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्’[2] तात्पर्य है कि जहाँ निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति के इच्छुक मनुष्य अपने कर्तव्य कर्मों के द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। परंतु जो मनुष्य यज्ञ नहीं करता, अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसके लिए भगवान् कहते हैं कि ‘वह तो चोर ही है’- ‘स्तेन एव सः’[3] ‘वह पाप का भी भक्षण करता है’- ‘भुञ्जते ते त्त्वघम्’[4] ‘वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला अघायु (पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य व्यर्थ ही जीता है)’- अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति[5] यज्ञ अर्थात् कर्तव्यपालन की जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह निष्कामभाव से या भगवत्पूजन के भाव से अपने कर्तव्य का तत्परतापूर्वक पालन करे। अपने-अपने कर्तव्य कर्म में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करलेता है- ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’[6] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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