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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
45. गीता में तीनों योगों की महत्ता
भक्तियोग
3. शीघ्र-सिद्धि- भगवान् में लगे हुए चित्त वाले भक्त का उद्धार भगवान् बहुत जल्दी कर देते हैं- ‘तेषामहं समुद्धर्ता.....नचिरात्पार्थ मय्यवेशितचेतसाम्’[1] कारण कि वह केवल भगवान् के ही परायण रहता है; अतः उसका उद्धार करने की जिम्मेवारी भगवान् पर आ जाती है। 4. पापों का नाश- भगवान् अपने शरणागत भक्त को संपूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं- ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’[2] कारण कि सर्वथा शरणागत भक्त की संपूर्ण जिम्मेवारी भगवान् पर ही आ जाती है। 5. संतुष्टि- भगवान् में मन लगाने पर भक्त संतुष्ट हो जाता है- ‘तुष्यन्ति’[3] कारण भगवान् में ज्यों-ज्यों मन लगता है, त्यों-त्यों उसे संतोष होता है कि मेरा समय भगवान् के चिंतन में लग रहा है। सिद्धावस्था में वह संतोष भक्त में स्वतः रहता है- ‘संतुष्टः सततं योगी’[4] कारण कि उसको भगवत्प्राप्ति हो गयी होती है। 6. शांति की प्राप्ति- भक्त परमशांति को हो जाता है- ‘शांति निर्वाणपरमाम्’,[5] ‘शश्वच्छान्तिं निगच्छति’[6] कारण कि उसका आश्रय केवल भगवान् ही रहते हैं। 7. समता की प्राप्ति- भगवान् अपने भक्तों को वह समता देते हैं, जिससे वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है- ‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते’[7] कारण कि वे केवल भगवान् में ही लगे रहते हैं, भगवान् के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते। 8. ज्ञान की प्राप्ति- भगवान् स्वयं अपने भक्त के अज्ञान का नाश करते हैं- ‘तेषामेवानु-कम्पार्थ....ज्ञानीपेन भास्वता’[8] कारण कि भक्त केवल भगवान् में ही लगा रहता है, भगवान् के सिवाय कुछ चाहता ही नहीं। अतः भगवान् अपनी ओर से ही उसके अज्ञान का नाश करके भगवत्तत्त्व का ज्ञान करा देते हैं। 9. प्रसन्नता (स्वच्छता) की प्राप्ति- भक्त का अंतःकरण प्रसन्न, स्वच्छ हो जाता है- ‘प्रशान्तात्मा’[9] कारण कि वह भगवान् का ध्यान करता रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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