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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
28. गीता में देवताओं की उपासना
यद्यपि इस मनुष्य लोक में कर्मों की सिद्धि चाहते हुए देवताओं की उपासना करने वालों की कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिलती है।[1] तथापि उस उपासना का फल अंतवाला ही होता है, अविनाशी नहीं होता है।[2] कारण कि देवतालोग अपनी उपासना करने वालों पर प्रसन्न हो जायँगे तो वे अधिक-से-अधिक उनको अपने लोकों में ले जा सकते हैं, पर उनका कल्याण नहीं कर सकते और जब तक उनके पुण्य रहते हैं, तभी तक वे उनको अपने लोकों में रहने देते हैं। पुण्य समाप्त होते ही वे उनको वहाँ से ढकेल देते हैं। जहाँ तक का टिकट होता है, वहाँ तक ही रेल में बैठ सकते हैं, ऐसे ही जितने पुण्य होते हैं उतने ही समय तक वे स्वर्ग में रह सकते हैं। पुण्य समाप्त होने पर उन्हें वहाँ से नीचे (मनुष्य लोक में) आना ही पड़ता है।[3] प्रकृति के साथ, गुणों के साथ सम्बंध रखने वाले जितने सुख हैं, भोग हैं, ऊँचे-ऊँचे लोक हैं, वे सभी नाशवान् है, सीमित हैं और जन्म मरण देने वाले हैं। जो प्रकृति से संबंध नहीं रखना चाहते, केवल अपना कल्याण चाहते हैं और पारमार्थिक मार्ग में लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्यों को किसी कारण विशेष से अंतकाल में साधन से विचलित होने पर स्वर्गादि लोकों में जाना भी पड़ता है तो भी वे वहाँ के भोगों में फँसते नहीं क्योंकि भोग भोगना उनका उद्देश्य नहीं रहा है। वहाँ के भोग तो उनके लिए विघ्नरूप होते हैं। वहाँ बहुत समय तक रहकर फिर वे शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेते हैं और पुनः साधन में लग जाते हैं।[4] देवताओं की उपासना करने वालों का पतन ही होता है, उनको बार-बार जन्म मरण का दुःख भोगना ही पड़ता है, पर जो किसी भी तरह से अपने कल्याण के साधन में लगा हुआ है, उसका कभी पतन नहीं होता[5] क्योंकि उसका उद्देश्य कल्याण का होने से भगवान् उसको शुद्ध श्रीमानों के घर में पुनः साधन करने का अवसर देते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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