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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 91-100
महाबुद्धि देवव्रत को जैसे ही पिता की चिन्ता का यह कारण विदित हुआ, उनके मन में सारी परिस्थिति स्फुरित हो उठी। वृद्ध क्षत्रियों को साथ लेकर वह स्वयं कैवर्तराज के पास पहुँचे और अपने पिता के निमित्त उस कन्या की याचना की। दाशराज ने विधिवत स्वागत-सत्कार करके अपनी राजसंसद के समक्ष देवव्रत से कहा, “तुम अपने पिता के समर्थ पुत्र हो। ऐसे सुन्दर सम्बन्ध को कौन टालना चाहेगा? यह सत्यवती आर्य बसु उपरिचर की संतति है, अतएव मैंने तुम्हारे पिता से कह दिया था कि सब राजाओं में वही इसके साथ विवाह के योग्य हैं; किन्तु कन्या का अभिवावक पिता होने के कारण मैं कुछ कहना चाहता हूँ। इस सम्बन्ध में एक ही भारी दोष मैं देखता हूँ। तुम जिसके सपत्न हो जाओ वह कभी सुख से न जी सकेगा। यदि तुम्हारा याचित दान मैं न दे सकूं तो भी तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ। इतना सुनते ही गांगेय देवव्रत का मन प्रदीप्त विचारों से भर गया और तेजस्वी संकल्प से उनके नेत्र चमक उठे। वह बोले, “सब राजा लोग सुनें। पिता के लिए मेरे इस सत्य मत को कृपया स्वीकार करें। हे दाशराज, जैसा तुम कहते हो, मैं वैसा ही करूंगा। इससे जिस पुत्र का जन्म होगा वही हमारा राजा बनेगा।” इतना सुनकर दाशराज ने फिर कहा, “हे भरतर्षभ, राज्य के विषय में तुम्हारा यह दुष्कर कर्म है। शान्तनु की ओर से कुछ करने में तुम्हीं समर्थ हो और तुम्हारी ही यह शक्ति है कि उनके लिए यह कन्या प्राप्त कर सको। पर राजकुमारों के संबंधियों का जो स्वभाव होता है उसके कारण एक बात मुझे कहनी पड़ती है। हे सौम्य, सुनो, अन्यथा, मत समझना। सत्यवती के लिए राजाओं के मध्य में तुमने जो प्रतिज्ञा की है, वह तुम्हारे अनुरूप है। वह अन्यथा न होगी। पर तुम्हारी जो संतान होगी, उसके विषय में मुझे संदेह है।” उसका इतना मत जानते ही सत्यधर्मपरायण गांगेय देवव्रत ने उसी समय प्रतिज्ञा की, “हे दाशराज, मेरा वचन सुनो। पिता के लिए जो मैं कहता हूं, सब राजा भी उसे सुनें। राज्य तो मैंने पहले ही त्याग दिया है। संतान के विषय में अब मैं यह निश्चय करता हूं:
“आज से मैं ब्रह्मचर्य धारण करूंगा। बिना पुत्र के भी मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी।” उसकी यह प्रतिज्ञा सुनकर दाशराज रोमांचित हो उठे और बोले, “मैं कन्या को राजा के लिए देता हूँ।” उसी समय देवों ने अन्तरिक्ष से पुष्पवृष्टि की और आकाशवाणी हुई, “यह कुमार अब भीष्म कहलायेगा।” तब भीष्म ने यशस्विनी सत्यवती से कहा, “माता, रथ पर बैठो। आओ, स्वगृह को चलें।” इसके पश्चात हस्तिनापुर लौटकर उन्होंने पिता शान्तनु के चरणों में सत्यवती को समर्पित किया। उनके उस दुष्कर कर्म की चारों ओर प्रशंसा होने लगी। शान्तनु ने भीष्म के उस दुष्कर कर्म से प्रसन्न होकर स्वयं वरदान दिया- “हे पुत्र तुम्हें इच्छा-मरण प्राप्त हो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदि 94।88
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