विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
अध्याय 330 में वैदिक शाखाओं का संक्षिप्त उल्लेख है। उसके बाद रुद्र और नारायण का मेल बताया गया है। अध्याय 331 में श्वेतद्वीप की कथा का सूत्र फिर जोड़ा गया है। नारद जी वहाँ से लौटकर पुनः बदरीनाथ में नर-नारायण के पास आये। नर-नारायण के वर्णन में उन्हें जालपाद और जालभुज कहा गया है। इसका अर्थ यह था कि हाथों और पैरों की अंगुलियों के बीच में त्वचा जुड़ी रहती थी, जैसे बत्तख की अंगुलियों में रहती है। यह गुप्ताकालीन प्रतिमा शास्त्र का लक्षण है और ऐसी मूर्तियां भी मिली हैं। मंकुवार से प्राप्त बुद्धमूर्ति में यह लक्षण स्पष्ट है। कालिदास ने भरत के हाथ को जालांगुलि लिखा है। अध्याय 332 में नर-नारायण के मुख से ईरानी परम्परा का भागवत धर्म के साथ समन्वय कराया गया है। इसमें वोहुमन आदि छह देवात्माओं का अहुरमज्द नामक सातवें देव के साथ उल्लेख करते हुए सासानी धर्म की गूढ़ शब्दों में व्याख्या है। नारद उस व्रत को सीखकर बदरीविशाल में आये और नारायण से उसे कहा। अध्याय 333 में वाराह रूपधारी नारायण द्वारा पार्थिव पिण्डों की स्थापना का उल्लेख है। वे पिण्ड ही पितर रूप में परिवर्तित हुए। यहाँ सासानी धर्म के पितरों की ओर संकेत है, जिन्हें वे फ्रवषि कहते थे और जिनके लिए बहुत-सा विधि-विधान बरता जाता था। अर्दबिराफ नामक ग्रन्थ में ईरानियों की पितृ पूजा का उल्लेख है। नारायणीय पर्व में नारद की कथा को महदाख्यान कहा गया है। इसमें धर्म के साथ सांख्य-योग का पुट था। अध्याय 335 में उसी पुराने सूत्र को पुनः जोड़ते हुए और अधिक स्पष्ट किया गया है। इसमें कहा गया है कि हरिमेधस या अहुरमज्द का एक रूप अश्वशिरः है। जिन्हें धर्मगृह या ईरानी आतिशगाह या अग्यारी में हुआ था। इसका आशय यह है कि वहीं अहुरमज्द की पूजा की जाती थी। ब्रह्म ने अपने सात जन्मों का उल्लेख किया है जिनमें पहला मानस जन्म वोहून ज्ञात होता है। श्वेतद्वीप और वहाँ के चन्द्रवर्चस् पुरुषों का काफी वर्णन हो चुका था। पांचवे सम्पुट में फिर उसका वर्णन किया गया[1]-प्रभामंडल दुद्र्दशः[2], चन्द्रवर्चसः [3], सहस्रार्चिषः।[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज