विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 50-58
लब्ध या प्राप्त हुए राष्ट्र का प्रशमन, सज्जनों का पूजन, विद्वानों से ऐक्यभाव या मेलजोल, प्रातः होमविधि या प्रातःकाल की आह्निक क्रिया में मांगलिक द्रव्यों का स्पर्श, शरीर की प्रतिक्रिया या वस्त्राभूषणों से सजाना, आहार-योजन या भोजन कर्म, आस्तिक्य या देवपूजन, एक होते हुए उत्थान का विचार, सत्य, मधुर वाणी, मह नामक उत्सवों और समाजों का करना, इन्द्रध्वज क्रिया, सब अधिकरणों या सरकारी दफ्तरों में प्रत्यक्ष और परोक्ष वृत्ति अर्थात गुप्त और प्रकट व्यवहारों का नित्य अवेक्षण भी उस राजशास्त्र का विषय था। ब्राह्मणों का अदण्ड्यत्व, युक्तदण्डता, अनुजीवी और स्वजाति या बन्धु-बान्धवों में गुणों की रक्षा या आधान, पुरवासियों का रक्षण, स्वराष्ट्र का विवर्धन, बारह प्रकार के राजाओं से मण्डल की चिन्ता, स्वयम्भू मनु द्वारा कथित 72 प्रकार के विषयों का चिन्तन भी उस राजशास्त्र का विषय था। देवधर्म, जातिधर्म, कुलधर्म का उसमें वर्णन था। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ भी उसके विषय थे। उपाय (चार प्रकार के पुरुषार्थों की संप्राप्ति), अर्थ-लिप्सा, बहुत प्रकार की दक्षिणाएं, कोशवृद्धि, कृषि एवं वाणिज्य आदि (मूलकर्म) की वृद्धि के उपाय, माया-योग या कूट-कपट के प्रयोग, बहते पानी की जल धाराओं का दूषण, ठहरे हुए कूपसरोवरादि के जलों का दूषण, लोक को आर्य पथ से हटाने की तरकीबें, इनका उस नीति शास्त्र में वर्णन था। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने आदि में वह राजशास्त्र बनाया था जिसमें उपर्युक्त विषयों का समावेश था। यह विषय-सूची बृहस्पति आदि राजशास्त्रों के ग्रन्थों की जान पड़ती है। यह सूची कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दी गई प्रारम्भिक विषय-सूची से लगभग पचास प्रतिशत मिलती है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में इन दस आचार्यों के नामों का उल्लेख है-1. मनु, 2. बृहस्पति, 3. उशनस 4. भरद्वाज, 5. विशालाक्ष, 6. पराशर, 7. पिशुन, 8. कौणपदन्त, 9. वातव्याधि, 10. बहुदन्तीपुत्र। वहाँ इनके मतों का उपन्यास भी किया गया है। इससे सूचित होता है कि चौथी शती ई. पू. में विष्णुगुप्त कौटिल्य के समक्ष इन आचार्यों के राजधर्म सम्बन्धी ग्रन्थ विद्यमान थे। लोकों के उपकार के लिए और त्रिवर्ग की स्थापना के लिए ब्रह्मा ने सरस्वती द्वारा ऊपर लिखा हुआ राजधर्म नामक नवनीत ग्रन्थ बद्ध किया। यह दण्डनीति लोक-रक्षण के लिए थी। लोकों का निग्रह और अनुग्रह इसका उद्देश्य था। यह राजशास्त्र दण्ड से व्यवस्थित किया जाता था और इस नीति से दण्ड की भी व्यवस्था होती थी। अतः इसकी संज्ञा दण्डनीति थी। षाड्गुण्य विषय इसका सार था। यह भविष्य में भी महात्मा राजाओं में टिकाऊ रहने वाली थी। दण्ड प्रजाओं के लिए महत्त्वपूर्ण विषय है। उससे सम्बन्धित दण्डनीति के लक्षण स्पष्ट हैं। नीति और चार अर्थात दण्डनीति और गुप्तचर ये अत्यन्त विपुल और विस्तृत हैं, जो लोक में व्याप्त हैं। उसी पैतामह शास्त्र की एक संक्षिप्त विषय सूची दूसरी बार भी दी गई है। उसे दुहराई हुई जानना चाहिए। सहावस्थिति (जक्स्टापोजीशन) के अनुसार दोनों को आगे-पीछे रख दिया गया है, जैसा महाभारत की शैली में और भी कई स्थानों पर पाया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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