विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 50-58
मार्ग या यात्रा-पथों के सम्पूर्ण गुण और विशेषताएं, भूमि के गुण, राजा की आत्मरक्षा, अपने जीवन के विषय में आश्वासन, रथ आदि के निर्माण का निरीक्षण, सेना के चार अंगों (मनुष्य, हाथी, रथ, और घोड़ों) की विविध कल्पनाएं भिन्न-भिन्न नामों की व्यूह रचना आदि का शास्त्र में वर्णन था। उत्पात (सैनिकों का उछल कर युद्ध करना), निपात (लेटकर युद्ध करना), सुमुध (घमासान लड़ाई), पलायन (सेना का पीछे हटना), शस्त्रों पर धार रखना, सेना की वृद्धि (हर्षण), सेना का क्षय (व्यसन), शत्रुसेना का पीड़न या दबाना, शत्रु पर आस्कन्द या सहसा आक्रमण, भयकाल, खातविधान (गड्ढे खोदना), योग (युद्ध के लिए सैनिक तैयारी), संचार (सेना का प्रयाण), चोर और आटविक सेना से परराष्ट्र का पीड़न, आग लगाने वाले गुप्तचर, विष देने वाले गुप्तचर, प्रतिरूपक (जालसाजी या कूट-कपट करने वाले गुप्तचर), श्रेणिमुख्यों का उपजाप या फोड़ना, विरुध छेदन (जंगलों की कटाई), हाथियों का दूषण या विकार भाव, और उनमें भय उत्पन्न करना, भोजन आदि अन्न का आरोधन, मार्गों का उपार्जन (निर्माण), सप्तांग राज्य का हृास और वृद्धि के उपाय, दूतों का सामर्थ्य (अधिकार) और उनकी नियुक्ति, राष्ट्र का विवर्धन, शत्रु, मित्र और मध्यों का विस्तारपूर्वक विवेचन (प्रपन्चन), बलवान शत्रुओं का आकस्मिक आक्रमण, पीस डालना (अवमर्दन) और उनसे टक्कर लेना, सूक्ष्म न्याय, व्यवहार (दीवानी न्याय), कण्टक-शोधन या फौजदारी न्याय, शम या शान्ति (लभ्य प्रशमन), व्यायाम (हलचल), पदार्थों का जुटाना और संग्रह करना, अभृत्यों का मरण और भृत्यों का अवेक्षण, अर्थकाल या अर्थ देने के समय में उसका प्रदान जैसे सैनिक वेतन, भृत्य भरणीय आदि, मृगयाक्षद्यूतादि व्यसनों में अनासक्ति, राजगुण, सेनापति के गुण, कारण के गुण-दोष, कर्ता के गुण-दोष, दुष्टों की विविध चालें, अनुजीवियों की वृत्ति या जीविका, सबके प्रति संशक रहना, प्रमाद-वर्जन, अलब्ध लिप्सा और लब्ध का संवर्धन, विवृद्ध धन का पात्रों को विधिवत प्रदान, अर्थ का धर्मार्थ विसर्ग, कामोपयोग के लिए अर्थ का विनियोग व्यसन या संकट के निवारण के लिए धन का उपयोग (इस प्रकार चार मार्गों से बढ़े हुए धन का व्यय), इस सब का उस राजशास्त्र ग्रन्थ में वर्णन था। मृगया, मद्य, द्यूत और स्त्री-प्रसंग इन चार कामज व्यसनों का उसमें वर्णन था। क्रोध से उत्पन्न छह व्यसन जिनका आचार्यों ने इस प्रकार वर्णन किया है- वाणी की कटुता, उग्रता, दण्ड की कठोरता, शरीर को कैद कर लेना, किसी को सदा के लिए त्याग देना और आर्थिक हानि पहुँचाना, इनका भी उस राजशास्त्र में वर्णन था। विविध प्रकार के यन्त्र और उन यन्त्रों की क्रियाएं, शत्रु राष्ट्र को कुचल देना (अवमर्दन), शत्रुसेना पर प्रतीघात या आक्रमण, शत्रु के निवास स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करना (केतनानां च भन्जनम) शत्रु की राजधानी के चैत्यवृक्षों का विध्वंस करा देना, पुर या राजधानी का रोध (घेरा), कर्मान्त या वास्तुशिल्प की इमारतों को नष्ट-भ्रष्ट करना, अपस्कर या रथांगों का निर्माण, वाहनों से प्रयाण, उपास्या (सैनिक पड़ाव), पणव (तन्त्रीबद्ध वाद्य), पटह (ढोल या नगाड़ा), भेरी (दुन्दुभि) और शंख नामक रणवाद्यों का वर्णन, मणि, पशु, पृथ्वी, वस्त्र, दास-दासी तथा सुवर्ण इन छह प्रकार के द्रव्यों का अपने लिए उपार्जन, तथा शत्रु के छह मर्मों का वर्णन भी उस राजशास्त्र में था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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