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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 50-58
अनुश्रुति है कि ब्रह्मा की उस राजनीति को सबसे पहले भगवान शंकर ने ग्रहण किया। बहुरूप, विशालाकक्ष उमापति उन्हीं के नाम थे। शिव जी ने ब्रह्मा के उस महान शास्त्र को संक्षिप्त किया, जिसकी संज्ञा वैशालाक्ष थी। फिर वह शास्त्र इन्द्र को मिला। इन्द्र ने दशसहस्र अध्यायों में उसका संक्षेप तैयार किया। बाहुदन्तक आचार्य ने उसे पांच सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया। बृहस्पति ने तीन सहस्र अध्यायों में उसे संक्षिप्त रूप प्रदान किया। उसे ही बार्हस्पत्य राजशास्त्र कहा जाता है। शुक्राचार्य ने उसे एक सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त रूप दिया। मर्त्य मनुष्यों की आयु का हृास देखकर ऋषि-महर्षियों ने इस शास्त्र को क्रमशः संक्षिप्त बनाया। अन्त में यह कहानी दी गई है कि सुनीथा का पुत्र वेन दुष्टाचारी था। उसके राज्य में निषादों के अत्याचार बढ़ गए। वैन्य का हनन करके ऋषियों ने राज्य पृथु को दे दिया। वे ही आदिराज कहलाये। यह सम्पूर्ण दण्डनीति पृथु को प्राप्त हुई।[1] पृथु ने ऋषियों से पूछा, “राजधर्म-विषयक इस प्रज्ञा को पाकर मैं क्या करूं?” ऋषियों ने कहा, “तुम्हें जो धर्म दिखाई पड़े निडर होकर उसका आचरण करो। प्रिय और अप्रिय का परित्याग करके सब प्राणियों में समान व्यवहार करो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान आदि के कारण जो धर्म का उल्लंघन करे उसे दण्ड दो। चौथी बात यह है कि मन, कर्म, वचन से तुम प्रतिज्ञ करके राजासन पर बैठो। वह प्रतिज्ञा यह है कि मैं भूमि पर ब्रह्म के स्वरूप इन प्रज्ञाओं का पालन करूंगाः जितनी बार हो सके इस प्रतिज्ञ या शपथ को दुहराओ। जो धर्म है, उसी का दण्डनीति के अनुसार मैं निडर होकर पालन करूंगा।” पृथु के धर्म राज्य में जरा, दुर्भिक्ष, आधि, व्याधि, एवं चोर-डाकुओं का भय नहीं था। उस महात्मा ने इस लोक को धर्मप्रधान बना दिया। उसने सब प्रजाओं को रंजन किया इस कारण वह राजा कहलायाः भगवान विष्णु ने स्वयं पृथ्वीपालक राजा के शरीर में प्रवेश किया। भगवान विष्णु के मस्तक से एक सोने का कमल उत्पन्न हुआ उससे देवी श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ जो धर्म की पत्नी है। उस धर्मयुक्त श्री से राष्ट्र में अर्थ-सम्पत्ति का प्रादुर्भाव होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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