विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 70-150
इस अवसर पर भीम ने भी कृष्ण से सन्देश कहा, पर अपने जन्मजात स्वभाव के एकदम विरुद्ध, “हे कृष्ण! जिस प्रकार से शान्ति हो, वही कहना। दुर्योधन बड़ा क्रोधी है, उससे प्रचण्ड वाक्य मत कहना। शान्ति ही बरतना। वह मर जाय तो भी अपना मत न छोड़ेगा। ऐसे के साथ शान्ति कठिन होती है। दुर्योधन के साथ अट्ठारह राजा बड़े दुष्ट स्वभाव के हैं। दुर्योधन भी कुलांगार भी है। इसलिए हे कृष्ण! उससे नम्र बात ही धीरे से कहना, उग्रता से नहीं। भले ही हम नीचे होकर रहें, किन्तु भरतों का नाश न हो। वहाँ पितामह भीष्म से तथा और भी जो बूढ़े सभासद हैं, उनसे कहना कि भाइयों में मेल हो जाय और दुर्योधन शांति ग्रहण करे।” भीम का यह सारा कथन आदि से अंत तक चोखा व्यंग्य था, जैसा कि उसने स्वयं अंत में प्रकट कर दिया, “कृष्ण! मैं ऐसा इसलिए कहता हूं, क्योंकि राजा युधिष्ठिर दुर्योधन की प्रतिष्ठा करते रहते हैं और अर्जुन भी युद्ध नहीं चाहते, वे बड़े दयालु हैं।”[1] भीम का यह कटाक्ष बहुत ही चोखा रहा कि हे कृष्ण! कहीं तीक्ष्ण बात कहकर तुम युद्ध न्यौत आये तो यहाँ लड़ेगा कौन? भीम के मृदुता-भरे वचन सुनकर कृष्ण मुस्कराये और उसको ठंडा होने से बचाने के लिए उकसाते हुए बोले, “हे भीम! तुम तो सदा युद्ध की बड़ाई करते रहे। तुम क्रूर कौरवों को पीस डालना चाहते थे। तुम्हें कभी ठीक से नींद भी नहीं आती थी, तुम्हारे भीतर बदले की आग सदा धधकती रही। रात और दिन तुम्हें चैन न था। आज शान्ति के लिए तुम्हारी बुद्धि कैसे हुई? क्या डर गए हो या तुम्हारा हृदय कांपता है? मुझे आश्चर्य है कि तुम्हारे जैसा पर्वत भी क्यों हिल गया। क्षत्रिय उसका भोग नहीं करता, जिसे वह अपने पराक्रम से प्राप्त न करे।” उत्तर में भीमसेन ने अपने पराक्रम के अनुरूप कुछ वचन कहे, “हे कृष्ण! अपनी प्रशंसा आर्य कर्म नहीं। फिर भी तुम देखना कि यदि सदा अडिग रहने वाले पृथ्वी और आकाश भी चलायमान हो जायं, तो मैं उनको भी अपने भुजदण्डों से रोक दूंगा। मुझे तनिक भी भय नहीं। जितना कहता हूं, उससे अधिक युद्ध में मुझे पाओगे, किन्तु एक सौहृद भाव से मैंने भी वह बात कही थी, जिससे कि भरतवंशियों का नाश न हो।”[2] इस कथन से ज्ञात होता है कि भीम जैसे युद्धप्रिय वीर के मन में कहीं मानवोचित कृपा-भाव का अंकुर छिपा हुआ था। कृष्ण ने भी बात को नया मोड़ देते हुए कहा, “हे भीम! क्या मैं तुम्हारा भाव जानता नहीं? मैंने तो प्रेमवश वैसा कहा। तुम्हारा परिभव मुझे इष्ट नहीं था। जितना तुम अपना सम्मान करते हो, उससे सहस्र गुणा मेरे मन में तुम्हारा सम्मान है।” भीम जिस स्वभाव के थे, उसमें भाग्यवादी दर्शन को स्थान न था। सोच-विचार कर न्यायानुकूल कर्म करना ही मनुष्य के लिए सब कुछ है। इस प्रकार का ठोस कर्मवाद भीम का लक्षण था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अहमेतद् ब्रवीम्येवं राजा चैव प्रशंसति।
अर्जुनो नैव युद्धार्थी भूयसी हि दयार्जुने।। (72।23) - ↑ 74।18
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज