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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 70-150
युद्ध में सदा प्राणों को, खटका बना रहता है। जीना और मरना अपने हाथ में नहीं। कभी कायर शूर को भी मार लेता है। निर्बल और सबल दोनों पक्षों की हार-जीत सम्भव है। कदाचित अपना ही मरण हो जाय, तो फिर जय-पराजय एक-सी है। जो हारता है, वह तो मर ही गया, पर जो जीतता है, उसकी भी हानि होती है। जिसके हृदय में कुछ करुणा है, वह जीतकर भी पश्चाताप करता है। हे कृष्ण! वैर से वैर शान्त नहीं होता, बल्कि इस तरह बढ़ता है, जैसे आहुति से आग बढ़ती है।[1] युद्ध ऐसा ही है, जैसे दो कुत्तों का लड़कर एक-दूसरे को फाड़ना। उनमें और युद्ध करने वाले मनुष्यों में कुछ भी भेद नहीं। हे कृष्ण! धृतराष्ट्र हमारे पूज्य हैं। हमें चाहिए कि उन्हें प्रणाम करें, पर पुत्र के वशीभूत हो, वे हमारे प्रणाम को भी ठुकरा देंगे। हे कृष्ण! अब हम क्या करें, जिससे अर्थ और धर्म दोनों की हानि न हो? आप ही हमारी गति हैं, आपके अतिरिक्त हमारा सुहृत और कौन है?” युधिष्ठिर के इस प्रकार के कातर वचन सुनकर कृष्ण भी द्रवित हुए होंगे। उन्होंने और कुछ नहीं कहा, किन्तु अपने मन की सारी शक्ति को एक निश्चय के रूप में ढालकर वह बोले, “हे युधिष्ठिर! मैं कौरवों की सभा में जाऊंगा कि शान्ति करा सकूं, जिससे तुम्हारे स्वार्थ की हानि न हो।”[2] कृष्ण से ऐसे प्रस्ताव के लिए युधिष्ठिर सम्भवतः तैयार न थे। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण! मेरा यह मत नहीं कि आप कौरवों के यहाँ जायं। इस समय सब राजा दुर्योधन के वश में हैं। उनके बीच में आपका जाना ठीक नहीं। चाहे सब देवों का ऐश्वर्य भी हम से छिन जाय पर मैं आपका निग्रह नहीं सह सकता।” कृष्ण ने उत्तर दिया, “दुर्योधन की पापबुद्धि को मैं समझता हूं, पर मेरे जाने से फिर हमारे ऊपर उंगली उठाने का किसी को अवसर न रहेगा। और फिर सारे राजा भी मिलकर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हे पार्थ! मेरा जाना निरर्थक न होगा।” कृष्ण के निश्चय को समझकर युधिष्ठिर ने तुरन्त कहा, “हे कृष्ण! आपको जो रुचे, वह करें। मैं तो आपको सकुशल लौटा हुआ देखना चाहूंगा। आप हमें जानते हैं, उन्हें भी जानते हैं, जो कार्य है, उसे भी समझते हैं, और भाषण में भी समर्थ हैं। अतएव जिससे हमारा हित हो, वह कहियेगा, चाहे शान्ति हो, चाहे युद्ध हो।” उत्तर में कृष्ण ने सारी परिस्थिति को आंकते हुए युधिष्ठिर के सामने सब पक्षों को रखा और कहा, “मैं शान्ति के लिए यत्न करूंगा और उनकी चेष्टाओं को भी देखूंगा कि कहीं युद्ध की ओर उनका झुकाव तो नहीं?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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