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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 70-150
कथा का आरम्भ युधिष्ठिर और कृष्ण के संवाद से होता है। युधिष्ठिर ने कहा, “हे कृष्ण! आपने संजय की बात सुनी। संजय ने जो कहा वह धृतराष्ट्र का ही मत था। वह चाहते हैं कि बिना राज्य दिये ही शांति हो जाय। उनके मन में पाप और भेदभाव है। बूढ़े राजा धृतराष्ट्र स्वधर्म नहीं देखते या देखते हुए भी अपने पुत्र का ही पक्ष करते हैं। मैंने तो केवल पांच गांव मांगे थे- कुशस्थल, वृकस्थल, आसन्दी, वारणावत और कोई एक; किन्तु दुर्योधन ने वह भी नहीं माना। जीवन में दरिद्रता मृत्यु के तुल्य है। शम्बर के मत में इससे अधिक पापिष्ठ अवस्था दूसरी नहीं कि जब आज और कल के भोजन के भी लाले पड़ जायं। धन ही परम धर्म है, धन ही सबकी नींव है, धनी ही लोक में जीते हैं, निर्धन मरे हुए हैं। जो किसी का धन हड़प लेते हैं, वे उसके धर्म और काम को भी मटियामेट कर देते हैं। इस दीन अवस्था को पहुँचकर तो कुछ लोगों ने प्राणों से ही हाथ धो लिये, कुछ वन में चले गये, कुछ का मस्तिष्क ही फिर गया और कुछ ने दासता ओढ़ ली। सम्पत्ति ही धर्म और काम का मूल है। जो श्रीमान है, वही पुरुष है। आपने स्वयं देखा है कि मैं राज्यहीन होकर किस दशा में रह रहा हूँ। किसी भी दृष्टि से हमारा राज्यहीन होकर रहना अच्छा नहीं। उसके लिए प्रयत्न करते हुए मृत्यु हो जाय तो अच्छा है। हमारे जीवन का प्रथम कल्प यही है। मैं जानता हूँ कि ज्ञातियों का वध पाप है, किन्तु हमारे लिए तो यही सुधर्म है। ब्राह्मण भिक्षा-कपाल ले सकते हैं, क्षत्रिय नहीं।”[1] यहाँ ग्रन्थकार ने युधिष्ठिर के मुख से राजनीति का वह सिद्धान्त कहलाया है, जो युद्ध को राज्य के लिए आवश्यक समझता था। युद्ध की इस नीति को ‘आरम्भ’ कहते थे। पहले सभापर्व में आरम्भवाद या युद्ध के दृष्टिकोण का उल्लेख हो चुका है। वहाँ कहा है कि बिना युद्ध के राजा मिट्टी की बांबी की तरह ढक जाता है। वायुपुराण में युद्ध को क्षत्रिय का यज्ञ कहा है।[2] क्षत्रिय क्षत्रिय को मारता है, मछली मछली को खाती है, कुत्ता कुत्ते से लड़ता है, यही तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी से आया हुआ धर्म है।[3] पूर्व पक्ष के रूप में युद्ध नीति की बात कहकर युधिष्ठिर ने फिर युद्ध के भयंकर परिणाम कहे, “युद्ध में कलियुग का बासा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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