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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 28-30
द्रौपदी के ये वचन सुनकर युधिष्ठिर ने अपनी ही बात पर आरूढ़ रहते हुए कहा, “हे याज्ञसेनि, तुम्हारा कथन कितना सुन्दर है, किन्तु इसके मूल में नास्तिक्य भाव भरा है। हे राजपुत्रि, क्या मैं इसलिए धार्मचरण करता हूँ कि मुझे उसका फल चाहिए? देना ठीक है, इसलिए मैं देता हूं; यजन करना चाहिए, इसलिए मैं यजन करता हूँ। यह तो पुरुष कर्तव्य है, फल यहाँ मिले या न मिले। शास्त्रों को देखकर और सद्वृत्त को समझकर मेरा मन धर्म में है। स्वभाव से ही मैंने उसे पकड़ा है। जो धर्म को दुहकर उसका फल चाहता है, या धर्म का आचरण करके फिर उसे शंका की दृष्टि से देखता है, उसे धर्म का फल नहीं मिलता, वह दुर्बलात्मा है। क्या तुमने नहीं देखा कि मार्कण्डेय, व्यास, वसिष्ठ, नारद, लोमश और शुक्र ये धर्म का पालन करने से ही गौरव को प्राप्त हुए? इन्हें तो वेद-शास्त्र प्रत्यक्ष थे, इन्होंने धर्म को ही सबसे आगे माना। इसलिए हे कल्याणी, ब्रह्मा और धर्म पर रजोगुण के कारण आक्षेप मत करो। जो धर्म पर कुतर्क करता है, वह किस अन्य वस्तु का प्रमाण मानेगा? इन्द्रियों की प्रीति से संबद्ध जो यह प्रत्यक्ष लोक-व्यवहार है, बस इतने को ही ऐसा मूर्ख सच्चा समझता है। उसके लिए और सब झूठा है। हे द्रौपदी, जैसे नाव व्यापारी को समुद्र के पार ले जाती है, वैसे ही स्वर्ग के लिए धर्म के अतिरिक्त दूसरी नाव नहीं है। यदि धर्म निष्फल हुआ करता तो यह सारा जगत अथाह अन्धकार में डूब जाता। इसलिए धर्म सफल है। हम विद्याभ्यास और तप का फल अपनी आंखों से देखते हैं। कर्मों का फल अवश्य है। धर्म शाश्वत है। इसलिए हे द्रौपदी, मन से नास्तिक्य भाव दूर करो और संशय के इस कुहरे से अपना उद्धार करो। ईश्वर और ब्रह्मा पर आक्षेप मत करो। उसे समझो और प्रणाम करो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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