विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 33
द्रौपदी युधिष्ठिर के इस नश्तर से ठिठकी नहीं। उसने साहस करके फिर मुंह खोला, “हे पार्थ, मैं धर्म को बुरा-भला नहीं कहती। ईश्वर और ब्रह्मा का निरादर कैसे कर सकती हूं? मैं दुखिया हूं, इसी से कुछ प्रलाप करती हूँ। फिर भी कुछ कहूंगी। आप मन से मेरी बात सुन लें। मैं तो इतना जानती हूं- जिसने जन्म लेकर मातृ-स्तन का पान किया है, उसे कर्म करना चाहिए। ईंट-पत्थरों का काम बिना कर्म के भले ही चल जाय, चेतन प्राणी का नहीं चल सकता। सब प्राणी कर्मों का प्रत्यक्ष फल पाते हैं, लोक इसका साक्षी है। समुत्थान सब जन्तुओं के लिए आवश्यक है। जल में खड़ा हुआ यह बगुला कितना ही शांत जान पड़े, वह भी उत्थान करता है। आपको भी स्वकर्म करना चाहिए। हिमालय को भी यदि खाते रहें और उसमें जोड़े नहीं तो वह क्षीण हो जायेगा। प्रजाएं यदि कर्म नहीं करेंगी तो चौपट हो जायंगी। लोक में जो भाग्यवादी हैं, अथवा जो हठवादी बनकर अपनी मनमानी करता है, दोनों लोक के शत्रु हैं। कर्मबुद्धि मनुष्य ही सराहनीय है। जो भाग्य का भरोसा करके निश्चेष्ट बन सुख से सोता है, वह दुर्बुद्धि जल में कच्चे घड़े की भाँति दुःख पाता है। ऐसे ही जो हठबुद्धि है, कर्म में शक्त होने पर भी कर्म नहीं करता, उसकी जीवन-यात्रा अधिक दिन नहीं चलती। हठ से, दैव से और स्वभाव से फल मनुष्य को मिल जाता है, उसमें उसकी अपनी कुछ वाहवाही नहीं। स्वयं अपने कर्म से जो फल मिले, वही सच्चा पौरुष है। उसे ही चक्षुदृष्ट प्रत्यक्ष कह सकते हैः प्रत्यक्षं चक्षुषा दृष्टं तत्पौरुषमिति स्मृतम्।।[1] “मन से कार्य का विनिश्चय करके धीरे व्यक्ति कर्म से जो प्राप्त करता है, वही पुरुष का अपना लाभ है। कर्मों की गिनती नहीं की जा सकती। भवन और नगरों का निर्माण पुरुष के कर्म का प्रत्यक्ष फल है। तिलों में तेल, गौ में दुग्ध, और काष्ठ में अग्नि होते हुए भी उनकी सिद्धि के लिए उपाय करना ही पड़ता है। कुशल और अकुशल दो प्रकार के व्यक्ति काम करते हैं। उनके किये हुए कर्म को देखकर तुरन्त उनकी पहचान हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 33।16
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज