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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 165-168
इधर कृष्णा ने देखा कि लक्ष्य-वेध हो चुका है और इन्द्रसदृश अर्जुन खड़े हैं। वह श्वेत पुष्पों की वरमाला लेकर उनकी ओर बढ़ी और उसे उनके गले में डाल दिया। इसी समय राजाओं में बड़ा कोलाहल मचा। वे कहने लगे, “देखो, इस दृष्ट द्रुपद को, इसने हमारा अपमान किया है। हमें यहाँ बुलाकर तिनके की तरह हमारी अवहेलना करके एक ब्राह्मण को अपनी कन्या दे देना चाहता है। हमारे रहते हुए ऐसा कभी नहीं हो सकता। हम इस दुरात्मा का इसके पुत्र के साथ ही वध कर देंगे। राजाओं के इस समूह में क्या इसे कोई दूसरा राजा अपने सदृश नहीं मिला? और फिर क्षत्रियों के स्वयंवर में ब्राह्मणों को वरण का अधिकार भी नहीं। यदि यह लड़की ही हममें से किसी के साथ न जाना चाहे तो इसे आग में झोंककर अपने देश को लौट जायेंगे।” इस प्रकार कहकर प्रचंड राजा हथियार लेकर द्रुपद की ओर दौड़े। यह देखकर पाण्डु-पुत्र भीम और अर्जुन द्रुपद की रक्षा के लिए राजाओं से भिड़ गए। उस मंडली में कृष्ण और बलराम भी उपस्थित थे। उन्होंने अर्जुन को धनुष चलाते हुए देखकर सब ताड़ लिया और बोले, “हे बलराम, यदि मेरा नाम वासुदेव है तो मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि यह अर्जुन ही है; और देखो वह जो वृक्ष लेकर वेग से राजाओं पर टूट पड़ा है, वह वृकोदर भीम है। वे सामने प्रलम्बवाहु युधिष्ठिर हैं। वे नकुल सहदेव हैं। मैंने जैसा सुना था, ये सब लोग लाक्षागृह में जलने से बच गए थे। इससे मैं प्रसन्न हूँ।” वहाँ उस समय जितने उद्धत राजा थे, भीम और अर्जुन ने उन सबको परास्त कर दिया, विशेषतः अर्जुन ने कर्ण को और भीम ने मद्रराज शल्य को। इस प्रकार जब राजा लोग बल से हार गए तो सब लोग अपने-अपने आवासों को यह कहते हुए लौटे कि आज रंग ब्राह्मणों के हाथ रहा और पांचाली द्रौपदी को ब्राह्मण वर ले गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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