श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी177. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक
(2) प्राणनाथ ! तुम्हारी कृपा में कुछ कसर नहीं और मेरे दुर्भाग्य में कुछ संदेह नहीं। भला, देखो तो सही तुमने ‘नन्दनन्दन’, ‘व्रजचन्द‘, ‘मुरलीमनोहर’, ‘राधारमण’– ये कितने सुन्दर-सुन्दर कानों को प्रिय लगने वाले अपने मनोहारी नाम प्रकट किये हैं, फिर वे नाम रीते ही हों सो बात नहीं, तुमने अपनी सम्पूर्ण शक्ति सभी नामों में समानरूप से भर दी है। जिसका भी आश्रय ग्रहण करें, उसी में तुम्हारी पूर्ण शक्ति मिल जायगी। सम्भव है, वैदिक क्रिया-कलापों की भाँति तुम उनके लेने में कुछ देश, काल और पात्र का नियम रख देते तो इसमें कुछ कठिनता होने का भय भी था, सो तुमने तो इन बातों का कोई भी नियम निर्धारित नहीं किया। स्त्री हो, पुरुष हो, द्विज हो, अन्त्यज हो, शूद्र हो, अनार्य हो, कोई भी क्यों न हो, सभी प्राणी शुचि-अशुचि किसी का भी विचार न करते हुए सभी अवस्थाओं में, सभी समयों में सर्वत्र उन सुमधुर नामों का संकीर्तन कर सकते हैं। हे भगवन ! तुम्हारी तो जीवों के ऊपर इतनी भारी कृपा और मेरा ऐसा भी दुर्दैव कि तुम्हारे इन सुमधुर नामों में सच्चे हृदय से अनुराग ही उत्पन्न नहीं होता। श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! (3) हरिनाम संकीर्तन करने वाले पुरुष को किस प्रकार के गुरु बनाने चाहिये और दूसरों के प्रति उसका व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसको कहते हैं– भागवत बनने वाले को मुख्यतया दो गुरु बनाने चाहिये– ‘एक तो तृण और दूसरा वृक्ष।' तृण से तो नम्रता की दीक्षा ले, तृण सदा सब के पैरों के नीचे ही पड़ा रहता है। कोई दयालु पुरुष उसे उठाकर आकाश में चढ़ा देते हैं, तो वह फिर ज्यों का त्यों ही पृथ्वी पर आकर पड़ जाता है। वह स्वप्न में भी किसी के सिर पर चढ़ने की इच्छा नहीं करता। तृण के अतिरिक्त दूसरे गुरु ‘वृक्ष’ से ‘सहिष्णुता’ की दीक्षा लेनी चाहिये। सुन्दर वृक्ष का जीवन परोपकार के ही लिये होता है। वह भेद-भाव शून्य होकर समान भाव से सभी की सेवा करता रहता है।’ जिसकी इच्छा हो वही उसकी सुखद शीतल सघन छाया में आकर अपने तन की ताप बुझा ले। जो उसकी शाखाओं को काटता है, उसे भी वह वैसी ही शीतलता प्रदान करता है और जो जल तथा खाद से उसका सिंचन करता है, उसको भी वैसी ही शीतलता। उसके लिये शत्रु-मित्र दोनों समान हैं। उसके पुष्पों की सुगन्धि जो भी उसके पास पहुँच जाय, वही ले सकता है। उसके गोंद को जो चाहे छुटा लावे। उसके कच्चे-पके फलों को जिसकी इच्छा हो, वही तोड़ लावे। वह किसी से भी मना नहीं करेगा। |