श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी174. श्री श्री निवासाचार्य जी
श्री चैतन्यदेव के प्रेम में विभोर हुए ये अनेक बातें सोचते जाते थे कि ‘श्री चैतन्यचरणों में जाकर यों प्रणत हूँगा, यों उनके प्रति अपना भक्ति-भाव प्रकट करूँगा। एक दिन स्वयं उन्हें अपने हाथों से बनाकर भिक्षा कराऊँगा।’ श्री चैतन्य–चरणों के दर्शनों की उत्कट उत्कण्ठा के कारण ही उनके मन में ऐसे भाव उठ रहे थे कि रास्ते में उन्होंने एक बडा ही हृदयविदारक समाचार सुना। ‘जिनके दर्शनों की लालसा से हम पुरी जा रहे हैं, वे तो अपनी लीला को संवरण कर चुके। चैतन्यदेव इस नश्वर शरीर को छोड़कर अपने नित्य–धाम को चले गये। इस समाचार को सुनते ही इनका हृदय फट गया, वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। बड़ी देर के पश्चात इन्हें होश आया तब दु:खित मन से श्री चैतन्य की लीला स्थली के दर्शनों के ही निमित्त वे रोते-रोते आगे बढ़े। पुरी में जाकर उन्होंने देखा वह भरी-पूरी नगरी गौरांग के बिना श्री हीन तथा विधवा स्त्री की भाँति निरानन्दपूर्ण बनी हुई है। सभी गौर-भक्त गौर-विरह में तप्त मछली की भाँति तड़प रहे हैं। गौर ने स्वप्न में ही इन्हें गदाधार पण्डित के पास जाने का आदेश दे दिया था। पण्डित गोस्वामी की ख्याति ये पहले से ही सुनते रहते थे। पुरी में ये गदाधर गोस्वामी का पता पूछते-पूछते उनके आश्रम में पहुँचे। वहाँ उन्होंने विरह-वेदना में बेचैन बैठे हुए पण्डित गोस्वामी को देखा। पण्डित गोस्वामी चैतन्य–विरह में विक्षिप्त-से हो गये थे। उनके दोनों नेत्रों से सतत अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। श्री निवास जी ‘हा चैतन्य !’ कहते-कहते उनके चरणों में गिर पड़े। आंसुओं के भरे रहने के कारण पण्डित गोस्वामी श्री निवास जी को देख नहीं सके। उन्होंने अत्यन्त ही करुणस्वर में कहा– ‘भैया ! तुम कौन हो ? इस सुमधुर नाम को सुनाकर तुमने मेरे शिथिल अंगों में पुन: शक्ति का संचार-सा कर दिया है। आज मेरे हृदय में तुम्हारे इन सुमधुर वाक्यों से बडी शान्ति-सी प्रतीत हो रही है। तुम श्री निवास तो नहीं हो ? दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए श्री निवास जी ने कहा– ‘प्रभो! इस अधम भाग्यहीन का ही नाम श्री निवास है। स्वामिन ! इस दीन-हीन कंगाल का नाम आपको याद है, प्रभो ! मैं बड़ा हतभागी हूँ कि इस जीवन में श्री चैतन्य-चरणों के साक्षात दर्शन न कर सका। महाप्रभु यदि स्वप्न में मुझे आदेश न देते तो मैं उसी क्षण अपने प्राणों को विसर्जन करने का संकल्प कर चुका था। चैतन्य–चरणों के दर्शन बिना इस जीवन से क्या लाभ ?’ |