श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी173. श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
कुछ काल के अनन्तर वंशीवदन भी इस असार संसार को परित्याग करके परलोकवासी बन गये। अब प्रिया जी की सभी सेवा का भार वृद्ध दामोदर पण्डित के ही ऊपर पड़ा। अपने प्रिय शिष्य के वियोग से प्रिया जी को अत्यधिक क्लेश हुआ और अब उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। पहले अँधेरे में कांचना के साथ गंगा स्नान करने के निमित्त घाट पर चली जाती थीं, अब घर में ही गंगा जल मँगाकर स्नान करने लगीं। कोई भी पुरुष उनके दर्शन नहीं कर सकता था। उन्होंने वैसे तो पर-पुरुष से जीवन भर में कभी बातें नहीं कीं, किन्तु अब उन्होंने भक्तों को भी दर्शन देना बंद कर दिया। शाम के समय पर्दे की आड़ में से भक्तों को उनके चरणों के दर्शन होते थे, उन अरुण रंग के कोमल चरणकमलों के दर्शन से ही भक्त अपने को कृतकृत्य समझते। श्रीमद् अद्वैताचार्य जी अभी तक जीवित थे। वृद्धावस्था के कारण उनका शरीर बहुत ही अधिक जर्जरित हो गया था। उन्होंने जब प्रिया जी के ऐसे कठोर तप की बात सुनी, तब तो उन्होंने अपने प्रिय शिष्य ईशान नागर को प्रिया जी का समाचार लेने के निमित्त नवद्वीप भेजा। शान्तिपुर से नागर महाशय आये। यहाँ दामोदर पण्डित ईशान नागर को प्रिया जी के अन्त:पुर में लग गये और वे प्रिया जी के चरण कमलों के दर्शनों से कृतार्थ हुए। उन दिनों प्रिया जी का तप अलौकिक हो रहा था। वे सदा पूजा मन्दिर में ही बैठी रहतीं। एक पात्र में चावल भरकर सामने रख लेतीं और दूसरे पात्र को खाली ही रखतीं। प्रात:काल स्नान करके वे महामंत्र का जप करने बैठतीं। एक बार– हरे राम हरे राम राम राम हरे रहे। यह सोलह नामों वाला मंत्र कह लिया और एक चावल उस खाली पात्र में डाल दिया। इस प्रकार तीसरे पहर तक वे निरन्तर जप करती रहतीं। |