श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी159. जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह
प्रेम के आवेश में पण्डित होकर भी ये इस बात को भूल गये कि संन्यासी के लिये तैल लगाना शास्त्रों में निषेध है। प्रेम में युक्तायुक्त विचारणा रहती ही नहीं। प्रेमी के लिये कोई लौकिक नियम नहीं, उसकी मथुरा तो तीन लोक से न्यारी हैं। जगदानन्द जी ने तैल लाकर गोविन्द को दे दिया और उससे कह दिया कि इसे प्रभु के अंगों में मल दिया करना। गोविन्द ने प्रभु से निवेदन किया- ‘प्रभो ! जगदानन्द पण्डित गौड़देश से यह चन्दनादि तैल लाये हैं और शरीर में मलने के लिये कह गये हैं। अब जैसी आज्ञा हो वैसा ही मैं करूँ।’ प्रभु ने कहा- ‘एक तो जगदानन्द पागल है, उसके साथ तू भी पागल हो गया। भला, संन्यासी होकर कहीं तैल लगाया जाता है, फिर तिस पर भी सुगन्धित तैल, जो रास्ते में जाते हुए देखेंगे, वे ही कहेंगे- यह शौकीन संन्यासी कैसा श्रृंगार करता है। सभी विषयी कहकर मेरी निन्दा करेंगे। मुझे ऐसा तैल लगाना ठीक नहीं है।’ गोविन्द इस उत्तर को सुनकर चुप हो गया। दो चार दिन के पश्चात् जगदानन्द जी ने गोविन्द से पूछा- ‘गोविन्द ! तुमने वह तैल प्रभु के शरीर में लगाया नहीं?, गोविन्द ने कहा- ‘वे लगाने भी दें तब तो लगाऊँ ? वे तो मुझे डाँटते थे।’ जगदानन्द जी ने धीरे से कहा-‘अरे ! तैने भी उनके डाँटने का खूब खयाल किया ! वे तो ऐसे ही कहते ही रहेंगे, तू लगा देना। मेरा नाम ले देना।’ |