श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी150. छोटे हरिदास को स्त्री-दर्शन का दण्ड
'सुनते ही महाप्रभु के भाव में एक प्रकार का विचित्र परिवर्तन-सा हो गया। उन्होंने गम्भीरता के साथ पूछा- 'माधवी के यहाँ से लेने कौन गया था? 'उसी प्रकार उन्होंने उत्तर दिया- 'प्रभो ! छोटे हरिदास गये थे। ' यह सुनकर महाप्रभु चुप हो गये और मन-ही-मन कुछ सोचने लगे। पता नहीं वे हरिदास जी की किस बात से पहले से ही असन्तुष्ट थे। उनका नाम सुनते ही वे भिक्षा से उदासीन-से हो गये। फिर कुछ सोचकर उन्होंने भगवान के प्रसाद को प्रणाम किया और अनिच्छापूर्वक कुछ थोड़ा-बहुत प्रसाद पा लिया। आज वे प्रसाद पाते समय सदा की भाँति प्रसन्न नहीं दीखते थे, उनके हृदय में किसी गहन विषय पर द्वन्द्व-युद्ध हो रहा था। भिक्षा पाकर वे सीधे अपने स्थान पर आ गये। आते ही उन्होंने अपने निजी सेवक गोविन्द को बुलाया। हाथ जोड़े हुए गोविन्द प्रभु के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसे देखते ही प्रभु रोष के स्वर में कुछ दृढ़ता के साथ बोले- 'देखना, आज से छोटा हरिदास हमारे यहाँ कभी न आने पावेगा। यदि उसने भूल में हमारे दरवाजे में प्रवेश किया तो फिर हम बहुत अधिक असन्तुष्ट होंगे। मेरी इस बात का ध्यान रखना और दृढ़ता के साथ इसका पालन करना।' गोविन्द सुनते ही सन्न रह गया। वह प्रभु की इस आज्ञा का कुछ भी अर्थ न समझ सका। धीरे-धीरे वह प्रभु के पास से उठकर स्वरूपगोस्वामी के पास चला गया। उसने सभी वृतान्त उनसे कह सुनाया। सभी प्रभु की इस भीषण आज्ञा को सुनकर चकित हो गये। प्रभु तो ऐसी आज्ञा कभी नहीं देते थे। वे तो पतितों से भी प्रेम करते थे, आज यह बात क्या हुई। वे लोग दौड़े-दौड़े हरिदास के पास गये और उसे सब सुनाकर पूछने लगे- 'तुमने ऐसा कोई अपराध तो नहीं कर डाला जिससे प्रभु इतने क्रुद्ध हो गये? 'इस बाते के सुनते ही छोटे हरिदास का मुख सफेद पड़ गया। उसके होश-हवास उड़ गये। अत्यन्त ही दु:ख और पश्चात्ताप के स्वर में उसने कहा- 'और तो मैंने कोई अपराध किया नहीं, हाँ, भगवानाचार्य के कहने से माधवी दासी के घर से मैं थोड़े-से चावलों की भिक्षा अवश्य माँग लाया था।' |