श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी17. विश्वरूप का वैराग्य
यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा ‘अरे ओ युवको! जब तक यह कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था तुमसे बहुत दूर चुपचाप तुम्हारी ताक में बैठी है, जब तक तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति न्यून नहीं हुई है और जब तक यह आयु शेष नहीं हुई है, तब तक ही आत्मा के कल्याण का प्रयत्न कर लो, इसी में बुद्धिमानी है। नहीं तो घर में आग लगने पर जो कुँआ खोदने की बात सोचकर चुपचाप बैठा है, उसके घर में आग लगने पर वह जल ही जायगा। आग लगने पर कुँआ खोदने में प्रयत्न करना मूर्खता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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