श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी136. श्री रूप को प्रयाग में महाप्रभु के दर्शन
अत्यन्त ही नम्रता के साथ किन्तु निर्भीकभाव से सनातन जी ने कहा- 'श्रीमान! आप जो चाहें सो समझें। मैं सदा आपके हित की बात सोचता रहा हूँ, और अब भी आपका शुभचिन्तक हूँ, किन्तु अब मुझसे राजकाज नहीं हो सकता।' लाल-लाल आँखें निकालते हुए बादशाह ने कहा- 'क्यों नहीं हो सकता ?' उसी प्रकार नम्रता के साथ सनातन ने उत्तर दिया- 'इसीलिये कि श्रीमन्! अब मेरा मन मेरे वश में नहीं है, वह वृन्दावन की ओर चला गया है।' बादशाह ने झुँझलाकर कहा- 'मैं यह सब सुनना नहीं चाहता तुम एक बात बताओ। राजकाज संभालते हो या नहीं ?' दृढ़ता के साथ सनातन जी ने कहा- 'मैंने श्रीमान से पहले ही निवेदन कर दिया है कि मैं अब किसी प्रकार राजकाज न कर सकूँगा।' सनातन जी की इस दृढ़ता को देखकर बादशाह हुसैनशाह एकदम चकित हो गया। जो आज तक सदा हाथ बांधे हुए मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था, वही मेरा वेतन भोगी नौकर मेरे सामने इस प्रकार निर्भीक होकर उत्तर दे रहा है। इस बात से उसे क्रोध आया किन्तु असमय में क्रोध प्रकट करना उचित न समझकर बादशाह ने कुछ बनावटी प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहा- 'अच्छा, जाने दो, तुम यहाँ का काम मत करो। मेरे साथ लड़ाई करने उड़ीसा देश को तो चलोगे?' सनातन जी ने फिर उसी तरह कहा- 'श्रीमन मुझे किसी खास काम से चिढ़ नहीं है। मुझे तो संसारी जितने काम हैं। सभी काटने को दौड़ते हैं। मैं कुछ भी न कर सकूँगा। आप मुझसे अब किसी प्रकार के काम की आशा न रखें।' अपने भीषण क्रोध को दबाते हुए और रोष से ओठ चबाते हुए बादशाह ने कहा- 'शाकिर मल्लिक! तुम होश में होकर बातें कर रहे हो या नशे में? तुम्हें पता है, तुम किससे बातें कर रहे हो ? अपनी बात पर फिर से सोच लो और खूब समझ-सोचकर उत्तर दो।' सनातन जी ने कहा- श्रीमान! मैंने कोई नशा नहीं किया है। मै खूब होश में होकर बातें कर रहा हूँ। मुझे पता है कि गौड़-देश के एकमात्र स्वतंत्र शासक और बंगाल के अधीश्वर से मैं बातें कर रहा हूँ, जिनकी छोटी-सी आज्ञा से देश-के-देश नष्ट-भ्रष्ट और बरबाद हो सकते हैं। जिनकी आज्ञा निष्फल नहीं हो सकती। श्रीमन! मैंने खूब सोच लिया है और खूब सोचकर ही उत्तर दे रहा हूँ कि मुझसे अब राजकाज किसी भी हालत में न हो सकेगा।' क्रोध के स्वर में बादशाह ने कहा- 'तुम जानते हो, तुम्हारी इस धृष्टता का फल क्या होगा ?' सिर झुकाकर सनातन जी ने कहा- 'मैं खूब जानता हूँ, यह सिर धड़ से अलग हो जायेगा, श्रीमन! इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं।' |