श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी126. पुरी में गौड़ीय भक्तों का पुनरागमन
क्वारके दशहरे के पश्चात् सभी भक्त लौटने के लिये प्रस्तुत हुए। प्रभु पहले की भाँति फिर एक-एक से अलग-अलग मिले और उनसे उनके मनकी बातें पूछीं। कुलीनग्रामवासी प्रभु के आज्ञानुसार प्रतिवर्ष जगन्नाथ जी के लिये पट्टडोरी लाया करते थे। वे प्रतिवर्ष महाप्रभु से वैष्णव के लक्षण पूछते। पहले वर्ष पूछने पर प्रभु ने बताया था- 'जिसके मुख से एक बार भी भगवन्नाम का उच्चारण करता हो गया वही वैष्णव है।' दूसरे वर्ष पूछने पर आपने कहा- 'जो निरन्तर भगवान के नामों का उच्चारण करता रहे वही वैष्णव है।' तीसरी बार फिर वैष्णव की परिभाषा पूछने पर प्रभु ने कहा- 'जिसे देखते ही लोगों के मुखों में से स्वतः ही श्रीहरि के नामों का उच्चारण होने लगे वही वैष्णव है।' इस प्रकार तीन वर्षों में प्रभु ने वैष्णव, वैष्णवतर और वैष्णवतम तीन प्रकार के भक्तों का तत्त्व बताया। महाप्रभु ने सभी को उपदेश किया कि वे वैष्णवमात्र के प्रति श्रद्धा के भाव रखें। वैष्णव चाहे कैसा भी क्यों न हो, वह पूजनीय ही है। इस प्रकार जिसने भी जो प्रश्न पूछा उसी का प्रभु ने उत्तर दिया। अद्वैताचार्य को भक्तों की देख-रेख करते रहने के लिये प्रभु ने फिर से उन्हें सचेष्ट किया। भक्तों को नवद्वीप से नीलाचल लाने और रास्ते में उनके सभी प्रकार के प्रबन्ध करने का भार प्रभु ने शिवानन्द सेन के ऊपर दिया था। उन्हें फिर से प्रभु ने समझाया कि सभी को खूब सावधानीपूर्वक लाया करें। नित्यानन्द जी से प्रभु ने निवेदन किया- 'श्रीपाद! आप प्रतिवर्ष नीलाचल न आया करें। वहीं रहकर संकीर्तन का प्रचार किया करें।' इस प्रकार सभी को समझा-बुझाकर प्रभुने विदा किया। सभी रोते-रोते प्रभुको प्रणाम करके गौड़-देश की ओर चले गये। केवल पुण्डरीक विद्यानिधि कुछ कालतक महाप्रभु के साथ पुरी में ही और रहना चाहते थे, इसलिये प्रभु उनके साथ अपने स्थान पर लौट आये। विद्यानिधि को प्रभु-प्रेमके कारण 'प्रेमनिधि' के नाम से सम्बोधन किया करते थे। उनकी स्वरूपदामोदरके साथ बहुत अधिक प्रगाढ़ता हो गयी थी। गदाधर इनके मंत्र-शिष्य थे ही, इसीलिये वे इनकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे। क्वारके बाद शीतकी जो पहली षष्ठी होती है, उसे 'ओढ़नषष्ठी कहते हैं। उस दिन जगन्नाथ को सर्दी के वस्त्र उढ़ाये जाते हैं। उस दिन भगवान के शरीर पर बिना धुले हुए माड़ी लगे हुए वस्त्रोंको देखकर विद्यानिधि को बड़ी घृणा हुई। उसी दिन रात्रि में भगवान ने बलराम जी के सहित हंसते-हंसते इनके कोमल गालों पर खूब चपतें जमायीं। जागने पर इन्होंने देखा कि सचमुच इनके गाल फूले हुए हैं, इससे इन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। महाप्रभु इनके और स्वरूपद मोदर के साथ कृष्ण-कथा कहने-सुनने में सबसे अधिक आनन्द का अनुभव करते थे। कुछ काल में अनन्तर महाप्रभु की आज्ञा लेकर ये अपने स्थान के लिये लौट आये। इसी प्रकार चार वर्षों तक भक्त महाप्रभु के पास प्रतिवर्ष रथ-यात्रा के समय बराबर आते रहे। पाँचवें वर्ष प्रभु ने भक्तों से कह दिया कि अबके हम स्वयं ही वृन्दावन जाने की इच्छा से गौड़-देश में आकर जननी और जन्म-भूमि के दर्शन करेंगे। अबके आपलोग न आवें। इस बात से सभी भक्तों को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई। महाप्रभु जब से दक्षिण की यात्रा समाप्त करके आये थे, तभी से वृन्दावन जाने के लिये सोच रहे थे, किन्तु रामानन्द जी, सार्वभौम तथा महाराज प्रतापरुद्र जी के अत्यधिक आग्रह के कारण अभी तक न जा सके। अब उनकी वृन्दावन जाने की प्रबल हो उठी। इससे पुरी-निवासी भक्तों ने भी इन्हें अधिक विवश करना नहीं चाहा। दुःखित मन से उन्होंने प्रभु को वृन्दावन जानेकी सम्मति दे दी। अब महाप्रभु वृन्दावन जाकर अपने प्यारे श्रीकृष्ण की लीलास्थली के दर्शनों के लिये बहुत अधिक उत्सुकता प्रकट करने लगे। वे वृन्दावन जाने की तैयारियाँ करने लगे। |