श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी15. चांचल्य
मिश्र जी तो गुस्से में भरे ही हुए थे, इन्हें उपद्रव करते देखकर वे आपे से बाहर हो गये और इन्हें पकड़ने के लिये दौडे़। ये भी बड़े चालाक थे, पिता को गुस्से में अपनी ओर आते देखकर ये खूब जोर से घर की तरफ भागे। रास्ते में माता मिल गयीं। झट से ये उनसे जाकर लिपट गये। माता ने इन्हें गोद में उठा लिया, ये उनके अंचल से मुँह छिपाकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगे। माता कहती थी- 'तू बहुत उपद्रव करता है, किसी की बात मानता ही नहीं, आज तेरे पिता तुझे खूब पीटेंगे।’ इतने में ही मिश्र जी भी आ गये, वे बाँह पकड़कर इन्हें शचीदेवी की गोद में से खींचने लगे। माता चुपचाप खड़ी थीं। इसी बीच और भी 10-5 आदमी इधर-उधर से आ गये। सभी मिश्रजी को समझाने लगे- 'अभी बच्चा है, समझता नहीं। धीरे-धीरे पढ़ने लगेगा। आपको पण्डित होकर बच्चे पर इतना गुस्सा न करना चाहिये।’ सब लोगों के समझाने पर मिश्र जी का गुस्सा शान्त हुआ। पीछे उन्हें अपने इस कृत्य पर पश्चात्ताप भी हुआ। कहते हैं, एक दिन रात्रि के समय स्वप्न में किसी महापुरुष ने इनसे कहा- 'पण्डित जी! आप अपने पुत्र को साधारण पुरुष ही न समझें। ये अलौकिक महापुरुषहैं। इनकी इस प्रकार भर्त्सना करना ठीक नहीं।’ स्वप्न में ही मिश्र जी ने उत्तर दिया- 'ये चाहे महापुरुष हों या साधारण पुरुष, जब ये हमारे यहाँ पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं, तो हमें इनकी भर्त्सना करनी ही पड़ेगी। पिता का धर्म है कि पुत्र को शिक्षा दे। इसीलिये शिक्षा देने के निमित्त हम ऐसा करते हैं।’ दिव्य पुरुष ने फिर कहा- 'जब ये स्वयं सब कुछ सीखे हुए हैं और इन्हें अब किसी भी शास्त्र के सीखने की आवश्यकता नहीं, तब आप इन्हें व्यर्थ क्यों तंग करते हैं?’ इस पर इन्होंने कहा- ‘पिता का तो यही धर्म है, कि वह पुत्र को सदा शिक्षा ही देता रहे। फिर चाहे पुत्र कितना भी गुणी तथा शास्त्रज्ञ क्यों न हो। मैं अपने धर्म का पालन अवश्य करूँगा और आवश्यकता होने पर इनको दण्ड भी दूँगा।’ महापुरुष इनसे प्रसन्न होकर अन्तर्धान हो गये। प्रातःकाल ये इस बात पर सोचते रहे। कालान्तर में वे इस बात को भूल गये। इनकी अवस्था ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-ही-त्यों इनकी कान्ति और भी दिव्य प्रतीत होने लगी। ये शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट थे। शरीर के सभी अंग सुगठित और मनोहर थे। शरीर में इतना बल था कि 4-4, 5-5 लड़के मिलकर भी इनको पराजित नहीं कर सकते थे। इनके चेहरे से चंचलता सदा छिटकती रहती। जो भी इन्हें देखता खुश हो जाता और साथ ही सचेष्ट भी हो जाता कि कहीं हमसे भी कोई चंचलता न कर बैठें। रास्ते में ये सदा कूदकर चलते। |