श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी104. राय रामानन्द द्वारा साध्य तत्व प्रकाश
प्रभु ने हँसकर कहा- ‘हाँ, ठीक है, होगा, मैं इसी अस्वीकार नहीं करता, किन्तु फिर भी दास्यभाव में कुछ संकोच अवश्य रहता है। सेवक को अपने स्वामी के ऐश्वर्य, बड़प्पन और मान-सम्मान का सदा ध्यान रहता है। इसलिये निर्भय होकर आनन्द-रस का पान करने में संकोच होता है, ऐसा कोई सम्बन्ध बताइये जिसमें संकोच का लेश भी न हो।’ तब तो अत्यन्त ही उल्लास के साथ रामानन्द राय ने कहा- ‘तब तो प्रभो ! मैं सख्य-सम्बन्ध को सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। सख्य-प्रेम में ऐश्वर्य, धन, मान, सम्मान किसी की भी परवा नहीं रहती। ग्वाल-बाल भगवान से नाराज होते थे, उनसे गौओं को घिरवाकर लाते थे। उनके कंधे पर चढ़कर चड्डी लेते थे। उन्हें अखिल विश्व के एकमात्र आधार भगवान वासुदेव से किसी प्रकार का संकोच नहीं था। यथार्थ रसास्वाद तो सख्यप्रेम में ही होता है।’ महाप्रभु ने कहा- ‘सख्य प्रेम का क्या कहना है? सख्य प्रेम ही तो यथार्थ में प्रेम है। किन्तु सख्य प्रेम सबको प्राप्त नहीं होता। उसमें दूसरे के प्रेम की अपेक्षा रहती है, यदि अज्ञानवश भ्रम हो जाय कि हमारा प्रेमी हमसे उतना प्रेम नहीं करता, जितना हम उससे करते हैं तब स्वाभाविक ही हमारे प्रेम में कुछ न्यूनता आ जायगी। इसलिये प्रेम का ऐसा कोई सम्बन्ध बतलाइये जो निरपेक्ष और हर हालत में एकरस बना रहे।’ इस पर जल्दी से रामानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो ! यह बात तो वात्सल्य-प्रेम में नहीं है। ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’ सन्तान चाहे प्रेम करे या न करे, माता-पिता का प्रेम उस पर वैसा ही बना रहता है। इसीलिये तो भगवान व्यासदेवजी ने कहा है- नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यगंसंश्रया। अर्थात ‘प्रेमदाता श्रीहरि की जैसी कृपा यशोदा जी पर हुई थी, वैसी कृपा ब्रह्मा, शिव की तो बात ही क्या, भगवान के सदा हृदय में निवास करने वाली लक्ष्मी पर भी नहीं हुई।’ इसलिये वात्सल्यभाव ही सर्वोत्तम ठहरता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10/9/20