श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘अच्छी बात है, मैं दण्ड को खूब सावधानी से रखूँगा, तुम आनन्द के साथ जाकर भिक्षा कर लाओ।’ यह कहकर नित्यानन्द जी ने जगदानन्द पण्डित के हाथ में से दण्ड ले लिया। जगदानन्द भिक्षा करने चले गये। इधर नित्यानन्द जी ने सोचा- ‘यह दण्ड तो प्रभु के लिये एक जंजाल ही है। जिन्हें प्रेम में अपने शरीर तक का होश नहीं रहता उन्हें दण्ड की भला क्या अपेक्षा हो सकती है? इसकी देख-रेख को एक और आदमी चाहिये। दण्ड का विधान तो साधारण अवस्था वाले सन्यासी के लिये हैं। महाप्रभु तो प्रेम के अवतार ही हैं, ये तो विधि-निषेध दोनों से ही परे हैं। इसलिये इनके लिये इस दण्ड का रखना व्यर्थ है।’ ऐसा सोचकर नित्यानन्द जी ने उस दण्ड के बीच में से तीन टूकड़े कर दिये और उसे तोड़-ताड़कर वहीं फेंक दिया। भिक्षा करके जगदानन्द पण्डित लौटे, उन्होंने नित्यानन्द जी के पास दण्ड न देखकर आश्चर्य के साथ पूछा- ‘श्रीपाद ! आपने दण्ड कहाँ रख दिया, कुछ गम्भीरता के साथ इधर-उधर देखते हुए धीरे से नित्यानन्द जी ने उतर दिया- ‘यही कहीं पड़ा होगा, देख लो।’ जगदानन्द जी ने देखा दण्ड एक ओर टूटा हुआ पड़ा है। टूटे हुए दण्ड को देखकर डरते हुए जगदानन्द जी ने कहा- 'श्रीपाद ! यह आपने क्या किया ? महाप्रभु के दण्ड को तोड़ दिया। उन्होंने तो मुझे सावधानी से रखने के लिये दिया था, आपने प्रभु के दण्ड को तोड़कर अच्छा काम नहीं किया, अब मैं उनसे जाकर क्या कहूंगा ?’ यह कहकर जगदानन्दजी बहुत ही दु:खी प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘प्रभो ! नित्यानन्दजी को दण्ड देकर मैं भिक्षा करने के निमित्त समीप के ग्राम में गया था, तब तक उन्होंने दण्ड को तोड़ डाला। इसमें मेरा कुछ भी अपराध नहीं है, यदि मुझे इस बात का पता होता, तो कभी उन्हें देकर नहीं जाता।’ इतने में ही नित्यानन्दन जी भी मुकुन्द आदि सहित वहाँ आ पहुँचे। तब प्रभु ने प्रेम का रोष प्रकट करते हुए नित्यानन्द जी से कहा- ‘श्रीपाद ! आपके सभी काम बड़े ही चपलतापूर्ण होतो हैं, भला दण्ड-भंग करके आपको क्या मिल गया ? आप तो मुझे अपने धर्म से भ्रष्ट करना चाहते हैं। सन्यासी के पास एक दण्ड ही तो परमधन है, उसे आपने अपने उद्धत स्वभाव से भंग कर दिया। अब बताइये, कैसे मैं आपके साथ रहकर अपने धर्म का पालन कर सकूंगा ?’ |