श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी90. महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
भोजन करके आगे बढ़े। आगे चलकर पुरी जानेवाली सड़क पर उन्होंने कर-गृह देखा। वहाँ पर राजा की ओर से प्रत्येक यात्री पर कुछ नियमित शुल्क लगता था, तब यात्री आगे जा सकते थे। उस समय शुल्क लेने वाले अधिकारी यात्रियों से शुल्क लेने में इतनी अधिक कठोरता करते थे कि बिना नियमित द्रव्य लिये वे किसी को भी आगे नहीं जाने देते थे। यहाँ तक कि वे साधु-सन्यासियों तक से भी वसुल करते थे। प्रभु को भी उन लोगों ने आगे जाने से रोका और कहने लगे- ‘बिना नियमित द्रव्य दिये तुम आगे नहीं जा सकते।’ प्रभु इस बात को सुनते ही रुदन करने लगें। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु निकल-निकलकर पृथ्वी को गीली कर रहे थे। वे ‘हा प्रभो ! हे मेरे जगन्नाथदेव ! क्या मैं तुम्हारे शीघ्र दर्शन न कर सकूंगा ? क्या नाथ ! मुझे तुम्हारे दर्शन होंगे?’ ऐसे आर्त वचनों को कह-कहकर रुदन करने लगे। इनके इस हृदयविदारक करुण क्रन्दन को सुनकर पाषाण-हृदय अधिकारी का हो सकता है? अवश्य ही ये कोई महापुरुष हैं। इन्हें जगन्नाथ जी जाने से नहीं रोकना चाहिये।’ यह सोचकर शुल्क एकत्रित करने वाला अधिकारी प्रभु के समीप जाकर पूछने लगा- ‘सन्यासी बाबा! तुम इतने अधीर क्यों होते हो? तुम्हारे साथ कितने आदमी है? तुम सब साथी कितने हो?’ प्रभु ने रोते-रोते अत्यन्त ही दीनभाव प्रदर्शित करते हुए कहा- ‘हमारा इस संसार में साथी ही कौन हो सकता है? हम तो घर-बार-त्यागी विरागी सन्यासी हैं, हम तो अकेले ही हैं। हमारा दूसरा कोई साथी नहीं है।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर अधिकारी ने कहा-‘अच्छा तो आप जायँ।’ उसकी बात सुनकर प्रभु आगे चलने लगे। थोड़ी दूर चलकर प्रभु अपने घुटनों में सिर देकर रुदन करने लगे। इनके रुदन को सुनकर अधिकारियों ने नित्यानन्द जी आदि भक्तों से इसके कारण की जिज्ञासा की। तब नित्यानन्द जी ने सब हाल बता दिया और कहा- ‘हम चारों प्रभु के साथी हैं, वे हमारे बिना अकेले न जायँगे’ तब अधिकारियों ने इन सबको भी जाने दिया। इस प्रकार उन शुल्क एकत्रित करने वाले अधिकारियों के हृदय में अपने प्रेम-भाव को जताते हुए प्रभु अपने साथियों के सहित स्वर्णरेखा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर प्रभु तो नित्यानन्दन जी को प्रतीक्षा में थोड़ी दूर पर जाकर बैठ गये। जगदानन्द–दामोदर आदि पीछे-पीछे आ रहे थे। जगदानन्द जी के हाथ में प्रभु का दण्ड था। उन्होंने नित्यानन्द जी से कहा- ‘श्रीपाद ! यदि आप महाप्रभु के इस दण्ड को भली-भाँति पकड़े रहें तो मैं गांव में से भिक्षा कर लाऊं।’ |