श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी86. माता को संन्यासी पुत्र के दर्शन
प्रभु तीन-चार दिन के थके हुए थे, अत: वे भोजन करके विश्राम करने के लिये बाहर वाले मकान में चले गये। एक सुन्दर तख्त पर आचार्य ने शीतलपाटी बिछा दी, उसी के ऊपर अपना काषाय वस्त्र बिछाकर प्रभु आराम करने लगे। आचार्यदेव उनके चरणों को दबाने के लिये बढे़। आचार्य के हाथों से बलपूर्वक अपने चरणों को छुड़ाते हुए प्रभु कहने लगे- ‘आप मुझे इस प्रकार लज्जित करेंगे, तो मुझे बड़ा भारी दु:ख होगा। मैं तो आपके पुत्र अच्युत के समान हूँ। मुझे स्वयं आपके दबाने चाहिये। अब आप हरिदास और मुकुन्ददत्त आदि भक्तों को भोजन कराकर स्वयं भी भोजन कीजिये!’ प्रभु की ऐसी आज्ञा पाकर आचार्य घर के भीतर गये और सभी भक्तों को भोजन कराने के अनन्तर उन्होंने स्वयं भी प्रसाद पाया और फिर प्रभु के ही समीप आकर बैठ गये। तीसरे पहर अत्यधिक थक जाने के कारण प्रभु की कुछ-कुछ आँखें झंपने लगीं, उन्हें थोड़ी-थोड़ी नींद आ गयी थी, सहसा उनके कानों में गगन भेदी हरिध्वनि सुनायी पड़ी। उस तुमुल ध्वनि के सुनते ही प्रभु चौंक पड़े और उठकर बैठ गये। अपने चारों ओर देखते हुए प्रभु आचार्य से पूछने लगे- ‘आचार्यदेव! यह इतनी भारी हरिध्वनि कहाँ से सुनायी पड़ रही है?’ आचार्य ने कहा- मालूम पड़ता है नवद्वीप से बहुत-से भक्त प्रभु के दर्शनों के लिये आ रहे हैं।’ यह कहते-कहते आचार्य बाहर निकलकर देखने लगे। थोड़ी देर में उन्हें सामने से श्रीवास, रमाई, पुण्डरीक, विद्यानिधि, गंगादास, मुरारी गुप्त, शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी, बुद्धिमन्त खाँ, नन्दनाचार्य, श्रीधर, विजयकृष्ण, वासुदेव घोष, दामोदर, मुकुन्द, संजय आदि बहुत-से भक्त ढोल, करताल लिये हुए और हरिध्वनि करते हुए आते हुए दिखायी देने लगे। उन्होंने उल्लास के साथ जोरों से चिल्लाकर कहा- ‘प्रभो! सब-के-सब आ रहे हैं। कोई भी बाकी नहीं बचा। बाकी कैसे बचे, जहाँ राजा वहाँ ही प्रजा। भक्त भगवान से पृथक रह ही कैसे सकते हैं।’ आचार्य की ऐसी बात सुनकर प्रभु जल्दी से जैसे बैठे थे, वैसे ही बाहर निकल आये। भक्तों को सामने से आते हुए देखकर प्रभु उनकी ओर दौड़े। उस समय प्रभु प्रेम में ऐसे विभोर हो रहे थे कि उन्हें सामने के ऊंचे चबूतरे का ध्यान ही नहीं रहा। वे ऊपर से एकदम कूद पड़े। प्रभु को अपनी ओर आते देखकर भक्त वहीं से प्रभु के लिये साष्टांग करने लगे। बहुत दूर तक भक्तों की लम्बी पड़ी हुई पंक्ति-ही-पंक्ति दिखायी देती थी। |