श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी84. राढ़-देश में उन्मत्त-भ्रमण
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव! -इन भगवन्नमों का संकीर्तन आरम्भ कर दिया। संकीर्तन को सुनते ही प्रभु आनन्द के सहित नृत्य करने लगे। सभी भक्त प्रभु के दर्शनों से परम प्रसन्न हुए, मानो किसी की चोरी गयी हुई सम्पूर्ण सम्पत्ति फिर से प्राप्त हो गयी हो। प्रभु भी भक्तों को देखकर सुखी हुए। कुछ काल के अनन्तर प्रभु प्रकृतिस्थ हुए। उन्हें अब बाह्यज्ञान होने लगा। वे नित्यानन्द जी, वक्रेश्वर आदि भक्तों को देखकर कहने लगे- ‘आप लोग खूब आ गये। मैं आप लोगों से एक बात कहना चाहता हूँ।’ सभी भक्त उत्सुकता के साथ प्रभु के मुख की ओर देखने लगे। तब प्रभु ने कहा- ‘मुझे भगवान का आदेश हुआ है, कि तुम जगन्नाथपुरी जाओ। पुरी में अच्युत भगवान ने मुझे शीघ्र ही बुलाया है। इसलिये अब मैं नीलाचल की ओर जाऊंगा। अब मुझे शीघ्र ही आकर पुरी में अपने स्वामी के दर्शन करने हैं।’ प्रभु की इस बात को सुनकर सभी को परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। प्रभु के मन की बात जान ही कौन सकता है कि वे भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त क्या-क्या करना चाहते हैं। इस प्रकार अब प्रभु पश्चिम की ओर न जाकर फिर पूर्व की ओर चलने लगे। |