श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
सुदामा की उक्ति है। सुदामा भगवान की दयालुता और असीम कृपा का वर्णन करते हुए कह रहे हैं- ‘भगवान की दयालुता तो देखिये-कहाँ तो मैं सदा पापकर्मों में रत रहने वाला दरिद्र ब्राह्मण और कहाँ सम्पूर्ण ऐश्वर्य के मूलभूत निखिल पुण्याश्रय श्रीकृष्ण भगवान! तो भी उन्होंने केवल ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए मुझ जातिमात्र के ब्राह्मण को अपनी बाहुओं से आलिंगन किया। इसमें मेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कृपालु कृष्ण की अहैतु की कृपा ही इसका एकमात्र कारण है।’ इस प्रकार प्रभु विविध प्रकार से मुरारी के सहित प्रेम प्रदर्शित करते हुए अपना मनोविनोद करते रहते थे और मुरारी को उसके द्वारा अनिर्वचनीय आनन्द प्रदान करते रहते थे। अब अद्वैतचार्य के संबंध की भी बातें सुनिये। अद्वैताचार्य प्रभु से ही अवस्था में बड़े नहीं थे, किंतु सम्भवतया प्रभु के पूज्य पिता श्रीजगन्नाथ मिश्र से भी कुछ बड़े होंगे। विद्या में तो ये सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। प्रभु ने जिनमें मन्त्र-दीक्षा ली थी, वे ईश्वरपुरी आचार्य के गुरुभाई थे, इस कारण वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध, कुलवृद्ध और संबंध वृद्ध होने के कारण प्रभु इनका गुरु की ही तरह आदर-सत्कार किया करते थे। यह बात आचार्य के लिये असह्य थी। वे प्रभु को अपने चरणों में नत होकर प्रणाम करते देखकर बड़े लज्जित होते और अपने को बार-बार धिक्कारते। वे प्रभु से दास्य-भाव के इच्छक थे। प्रभु उनके ऊपर दास्य-भाव न रखकर गुरु-भाव प्रदर्शित किया करते थे, इसी कारण वे दु:खी होकर हरिदास जी के साथ शांतिपुर चले गये और वहीं जाकर विद्यार्थियों को अद्वैत-वैदांत पढ़ाने लगे और भक्ति-शास्त्र अभ्यास छोड़कर ज्ञानचर्चा करने लगे। प्रभु इनके मनोगत भावों को समझ गये। एक दिन आपने नित्यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद! आचार्य इधर बहुत दिनों से नवद्वीप नहीं पधारे, चलो शांतिपुर चलकर ही उनके दर्शन कर आवें।’ नित्यानंद जी को भला इसमें क्या आपत्ति होनी थी? दोनों ही शांतिपुर की ओर चल पड़े। दोनों ही एक-से मतवाले थे, जिन्हें शरीर की सुधि नहीं, उन्हें भला रास्ते का क्या पता रहेगा? चलते-चलते दोनों ही रास्ता भूल गये। भूलते-भटकते दोनों गंगा जी के किनारे ललितपुर में पहुँचे। ललितपुर में पहुँचकर गंगा जी के किनारे इन्हें एक घर दिखायी दिया। लोगों से पूछा- ‘क्यों जी, यह किसका घर है?’ लोगों ने कहा- ‘यह घर गृहस्थी संन्यासी का है।’ यह उत्तर सुनकर प्रभु बड़े जोरों से खिलखिलाकर हंस पड़े और नित्यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद! यह कैसे आश्चर्य की बात! गृहस्थी भी और फिर संन्यासी भी। गृहस्थी-संन्यासी तो हमने आजतक कभी नहीं देखा। चलो देखे तो सही, गृहस्थी-संन्यासी कैसे होते हैं? नित्यानंद जी यह सुनकर उसी घर की ओर चल पड़े। प्रभु भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उस घर के द्वार पर पहुँचकर दोनों ने काषाय-वस्त्र पहने संन्यासी वेषधारी पुरुष को देखा। |