श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
आज ब्रह्मा बाबा की सभा में उन्हें प्रणाम करने गया था। रास्ते में नारद बाबा ही मिल गये। मुझसे कहने लगे- ‘भाई! तुम खूब मिले। हमारी बहुत दिनों से प्रबल इच्छा थी कि कभी वृन्दावन की-श्रीकृष्ण की लीला को देखें। कल तुम हमें श्रीकृष्ण लीला दिखाओ। नारद बाबा भी अजीब हैं। भला मैं वृन्दावन की परम गोप्य रहस्य लीलाओं का प्रत्यक्ष अभिनय कैसे कर सकता हूँ। परिपार्श्वक इस बात को सुनकर (आश्चर्य प्रकट करते हुए) कहने लगा- ‘महाशय! आप आज कुछ नशा-पत्ता तो करके नहीं आ रहें हैं? मालूम पड़ता है, मीठी विजया कुछ अधिक चढ़ा गये हो। तभी तो ऐसी भूली-भूली बातें कर रहें हो? भला नारद- जैसे ब्रह्मज्ञानी, जितेन्द्रिय और आत्माराम मुनि श्रीकृष्ण की श्रृगांरी लीलाओं के देखने की इच्छा प्रकट करें यह तो आप एकदम असम्भव बात कह रहे हैं।’ सूत्रधार (हरिदास)- वाह साहब! मालूम पड़ता है, आप शास्त्रों के ज्ञान से एकदम कोरे ही हैं। श्रीमद्भागवत में क्या लिखा है, कुछ खबर भी नहीं है? भगवान के लीलागुणों में यही तो एक भारी विशेषता है कि मोक्ष-पदवीदार पर पहुँचे हुए आत्माराम मुनि तक उनमें भक्ति करते हैं।[1] परिपार्श्वक- अच्छे आत्माराम हैं, माया से रहित होने पर भी मायिक लीलाओं को देखने की इच्छा करते रहते हैं। सू०– तुम तो निरे घोंघा वसन्त हो। भला भगवान की लीलाएँ मायिक कैसे हो सकती हैं? वे तो अप्राकृतिक हैं। उनमें तो मायका लेश भी नहीं। सू०- बस, सुना ही है, विचारा नहीं। विचारते तो इस प्रकार गुड़-गोबर को मिलाकर एक न कर देते। यह बात मनुष्यों की क्रिया के सम्बन्ध में है, जो मायाबद्ध जीव हैं। भगवान् तो मायापति हैं। माया तो उनकी दासी है। वह उनके इशारे से नाचती है। उनकी सभी लीलाएं अप्राकृतिक, बिना प्रयोजन के केवल भक्तों के आनन्द के ही निमित्त होती हैं। सू०- तुम तो एकदम अकल के पीछे डंडा लिये ही फिरते रहते हो। वे देवर्षि ठहरे, संकल्प करते ही जिस लोक में चाहें पहुँच सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरि:।।