श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
भीतर बैठे हुए आचार्य वासुदेव पात्रों का रंगमंच पर भेजने के लिये सजा रहे थे। इधर पर्दा गिरा। सबसे पहले मंगलाचरण हुआ। अभिनय में गायन करने के लिये पांच आदमी नियुक्त थे। पुण्डरीक, विद्यानिधि, चन्द्रशेखर आचार्यरत्न और श्रीवास पण्डित के रमाई आदि तीनों भाई। विद्यानिधि का कण्ठ बड़ा ही मधुर था। वे पहले गाते थे। उनके स्वर में ये चारों अपना स्वर मिलाते थे। विद्यानिधि ने सर्वप्रथम अपने कोमल कण्ठ से इस श्लोक का गायन किया- इसके अनन्तर एक और श्लोक मंगलाचरण में गाया गया, तब सूत्रधार रंग-मंचपर आया। नाटक के पूर्व सूत्रधार आकर पहले नाटक की प्रस्तावना करता है, वह अपने किसी साथी से बातों-ही-बातों में अपना अभिप्राय प्रकट कर देता है, जिस पर वह अपना अभिप्राय प्रकट करता है, उसे परिपार्श्वक कहते हैं। सूत्रधार (हरिदास)– ने अपने परिपार्श्वक (मुकुन्द)- के सहित रंगमंच पर प्रवेश किया। उस समय दर्शकों में कोई भी हरिदास जी को नहीं पहचान सकते थे, उनकी छोटी-छोटी दाढ़ों के ऊपर सुन्दर पाग बंधी हुई थी, वे एक बहुत लम्बा-सा अंगरखा पहने हुए थे और कंधेपर बहुत लंबी छड़ी रखी हुई थी। आते ही उन्होंने अपनी आजीविका प्रदान करने वाली रंगभूमि को प्रणाम किया और दो सुन्दर पुष्पों से उसकी पूजा करते हुए प्रार्थना करने लगे- ‘हे रंगभूमि! तू आज साक्षात वृन्दावन ही बन जाओ’ इसके अनन्तर चारों ओर देखते हुए दर्शकों की ओर हाथ मटकाते हुए वे कहने लगे- ‘बड़ी आपत्ति है, यह नाटक करने का काम भी कितना खराब है। सभी के मन को प्रसन्न करना होता है। कोई कैसी भी इच्छा प्रकट कर दे, उसकी पूर्ति करनी ही होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो सब जीवों का आश्रय है, जिन्होंने कहने मात्र को देवकी के गर्भ से जन्म लिया, जिन्होंने सेवक समान आज्ञाकारी बड़े-बड़े़ यदुश्रेष्ठों के साथ अपने बाहुबल से अधर्म का संहार किया, जो चराचर जगत के दु:खों को दूर करने वाले हैं, जिनके सुन्दर हास्यशोभित श्रीमुख को देखकर व्रजबालाओं के हृदय में कामोद्दीपन हुआ करता था, उन श्रीकृष्ण की जय हो। श्रीमद्भा. 10/90/48