श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी7. चैतन्य-कालीन बंगाल
राजच्युत और धर्मभ्रष्ट हुए सुबुद्धि राय ने गौड़-देश के पण्डितों से इस पाप के प्रायश्चित्त की व्यवस्था चाही। धर्म के मर्म को भलीभाँति जानने वाले विद्वान ब्राह्मणों ने बहुत ही बढि़या व्यवस्था बतायी। उन्होंने कहा- ‘इस पाप का प्रायश्चित्त प्राणत्याग के अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। सो भी प्राणों का त्याग या तो गरम घृत पान करके किया जाय या धान के तुषारों में धीरे-धीरे सुलगाकर शरीर जलाया जाय।[1] जन्म से राजसुखों को भोगने के आदी और ऐश-आराम में पले हुए सुबुद्धि राय की बुद्धि ने इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, वे कोई और हल की व्यवस्था लेने के निमित्त वाराणसी के पण्डितों के पास गये। काशी के पण्डित भी कोई घाट थोडे़ ही थे, शास्त्रों का अध्ययन तो उन्होंने भी किया था, उन्होंने भी उसी व्यवस्था को बहाल रखा। प्राण त्याग ने में असमर्थ सुबुद्धि खाँ उधर-इधर भटकते हुए अपने जीवन को बिताने लगे। कालान्तर में जब महाप्रभु वाराणसी पधारे तब ये उनका नाम सुनकर उनके शरणापन्न हुए और अपनी सम्पूर्ण कथा कह सुनायी। सब कुछ सुनकर प्रभु ने आज्ञा दी- ‘अनिच्छापूर्वक प्राणों के त्याग से कोई लाभ नहीं। वृन्दावनवास करके अहर्निश कृष्ण-स्मरण करो और भक्त-महात्माओं की सेवा-पूजा करो। भगवन्नाम से ही करोड़ों जन्मों के पाप क्षय हो जाते हैं, एक जन्म की तो बात ही क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पता नहीं उस समय की क्या परिस्थिति थी, वैसे स्मृतियों में तो अन्त्यज अथवा म्लेच्छ के बर्तन का जल पी लेने पर घी, दूध, दधि तथा उपवास करके कई प्रकार के प्रायश्चित्त बताये हैं। इसके लिये जलकर प्राण त्याग देना तो हीं मिलता नहीं। हाँ, द्विजों को शराब पी लेने पर तो जरूर प्राणत्याग का विधान कहीं-कहीं पाया जाता है। कायस्थ क्षत्र-बन्धु तो अवश्य ही हैं। सम्भव है उन्होंने शराब ही पी ली हो या सदा पीते रहे हों, इसी कारण पण्डितों ने ऐसी व्यवस्था दी हो। जो भी कुछ हो इस व्यवस्था में कोई आन्तिरक रहस्य जरूर रहा होगा।