श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी65. जगाई और मधाई की प्रपन्नता
जगाई-मधाई की ऐसी स्तुति सुनकर प्रभु ने उनसे कहा-‘तुम दोनों भाई सभी भक्तों की चरण-वंदना करो। भक्तों की पद-धूलि से पापी-से-पापी पुरुष भी परम पावन और पुण्यात्मा बन सकता है। प्रभु की आज्ञा पाकर दोनों भाई अपने अश्रुओं से भक्तों के चरणों को भिगोते हुए उनकी चरण-वंदना करने लगे। सभी भक्तों ने उन्हें हृदय से परम होने का सर्वोत्त्म आशीर्वाद दिया। अब महाप्रभु ने उनकी शांति के लिये दूसरा उपाय सोचा। भगवती भागीरथी सभी के पापों को जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देनेवाली हैं, अत: आपने भक्तों से जाह्नवी के तटपर चलने के लिये कहा। चांदनी रात्रि थी, गर्मी के दिन थे, लोग कुछ तो सो गये थे, कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय सभी भक्त दोनों भाइयों को आगे करके संकीर्तन करते हुए और प्रेम से नाचते-गाते गंगा-स्नान के निमित्त चले। संकीर्तन और जय-जयकारों की तुमुल ध्वनि सुनकर सहस्त्रों नर-नारी गंगा जी के घाटपर एकत्रित हो गये। बहुत-से तो खाट पर से वैसे ही बिना वस्त्र पहने उठकर चले आये, कोई भोजन करते-से ही दौड़े आये। पत्नी पतियों को छोड़ करके, माता पुत्रों का परित्याग करके तथा बहुएं अपनी सास-ननदों की कुछ भी परवा न करके संकीर्तन देखने की निमित्त दौड़ी आयी। सभी आ-आकर भक्तों के साथ संकीर्तन करने में निमग्न हो गये। सभी एक प्रकार के अपूर्व आकर्षण के वशीभूत होकर अपने आपको भूल गये। महाप्रभु ने संकीर्तन बंद करने की आज्ञा दी और इन दोनों भाइयों को साथ लेकर वे स्वयं जल में घुसे। उनके साथ नित्यानंद, अद्वैताचार्य, श्रीवास तथा गदाधर आदि सभी भक्तों ने भी जल में प्रवेश किया। जल में पहुँचकर प्रभु ने दोनों भाइयों से कहा- ‘जगन्नाथ (जगाई) और माघव (मधाई)! तुम दोनों अपने-अपने हाथों में जल लो।' प्रभु की आज्ञा पाते ही दोनों ने अपने-अपने हाथों में जल लिया। तब प्रभु ने गम्भीरता स्वर में अत्यंत ही स्नेह के साथ दयार्द्र होकर कहा- ‘आजतक तुम दोनों भाइयों ने जितने पाप किये हों, इन जन्म में या पिछले कोटि जन्मों में, उन सभी को मुझे दान कर दो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसकी कृपा से गूंगा भी वक्तृता दे सकता है और लंगड़ा भी बिना किसी के सहारे पहाड़ की चोटी पर चढ़ सकता है, उन परम आनन्दस्वरूप प्रभु के पादपद्मों में हम प्रणाम करते हैं। श्रीधरस्वामी भा. टी.