श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी6. चैतन्य-कालीन भारत
दिल्ली का सिंहासन ही भारतवर्ष को दिग्विजय करने का मुख्य चिह्न था। उस समय दिल्ली के सिंहासन पर लोदी-वंश का अधिकार था किन्तु उस वंश के बादशाहों में अब वीरता-पराक्रम बिलकुल नहीं रहा था, लोदी-वंश अपनी अन्तिम साँसों को जैसे-तैसे कष्ट के साथ पूर्ण कर रहा था, अफ़ग़ान-सरदार लोदी-वंश का अन्त करने पर तुले हुए थे, इसलिये उन्होंने काबुल के बादशाह बाबर को दिल्ली के सिंहासन के लिये निमन्त्रित किया। बाबर-जैसा राज्यलोलुप बादशाह ऐसे स्वर्ण समय को हाथ से कब खोने वाला था। पंजाब का शासन दौलत खाँ उसका पृष्ठ-पोषक था, ईसवी सन् 1526 में बाबर ने भारत वर्ष पर चढ़ाई की और पानीपत के इतिहास-प्रसिद्ध रणक्षेत्र में इब्राहिम लोदी को परास्त करके वह स्वयं दिल्ली का बादशाह बन बैठा और उसके पश्चात् उसका पुत्र हुमायूँ दिल्ली के तख्त पर बैठा। इधर राजपूताने में राणा सांगा ने हिन्दूधर्म की दुहाई देकर बाबर के विरुद्ध बलवा आरम्भ किया। दोनों में घोर युद्ध हुआ, किन्तु मैदान बाबर के ही हाथ रहा, राणा सांगा परास्त होकर भाग गये। पंजाब में भी छोटी-मोटी पचासों रियासतें बन गयीं। उनमें के पहाड़ी राजा तो प्रायः सभी अपने को स्वतन्त्र ही समझते थे। पहाड़ों में छोटी-छोटी बीसों स्वतन्त्र रियासतें थीं। इधर दक्षिण में विजयनगर का अन्त हो चुका था। बहमनी वंश का अन्त होते ही अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा, बीदर और बरार- ये पाँच रियासतें एकदम अलग हो गयीं। बंगाल, बिहार, तिरहुत तथा उड़ीसा में भी छोटी-छोटी बहुत-सी मुसलमानी तथा हिन्दुओं की नयी रियासतें बन गयीं। इस प्रकार सम्पूर्ण भारतवर्ष में पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक एक भारी राजक्रान्ति मची हुई थी। सैकड़ों छोटे-छोटे राज्य परस्पर में एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते रहते थे। सभी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिये जी-जान से प्रयत्न करते। कभी तो किसी मुसलमानी रियासत को दबाने के लिये मुसलमानों में से दूसरे वंश के सरदार किसी पराक्रमी हिन्दू-राजा की सहायता से उस पर चढ़ाई कर देते और कभी किसी हिन्दू-राज्य को नष्ट करने के निमित्त दो मुसलमान-सरदार मिलकर उस पर धावा बोल देते। सम्पूर्ण भारत में कोई एकच्छत्र शासक नहीं था। वह राज्य-परिवर्तन का समय था, जिसमें भी बलपराक्रम हुआ, जिसके भी अधीन बलवान सेना हुई, वही उस प्रान्त का शासक बन बैठा और दिल्ली के बादशाह ने भी उसे उसी समय शासक स्वीकार कर लिया। ऐसी तो उस समय राजनैतिक परिस्थिति थी। अब सामाजिक परिस्थिति पर भी थोड़ा विचार कीजिये। |