श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी6. चैतन्य-कालीन भारत
मुसलमान को यहाँ आये सैकड़ों वर्ष हो चुके थे, फिर भी हिन्दू अपनी कट्टरता पर ही तुले हुए थे, वे अब तक मुसलमानों के साथ किसी भी प्रकार का संसर्ग नहीं करते थे। जिनका तनिक भी मुसलमानों से संसर्ग हो जाता, जो भूलकर भी कभी मुसलमानों के हाथ की कोई वस्तु खा लेता, वह एकदम समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता, फिर उसके उद्धार का समाज के पास कोई उपाय ही नहीं था। संस्कृत-विद्या का आदर था, पण्डितों की व्यवस्था की मान्यता थी, समाज में बस व्यवस्था के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा सकता। ब्राह्मणों का फिर भी बहुत अधिक प्रभाव था, उच्च वर्ण वाले नीच वर्ण वालों के साथ अत्याचार भी कम नहीं करते थे, इसलिये नीच समझे जाने वाले करोड़ों मनुष्य हिन्दू-धर्म को अन्तिम तिलान्जलि दे-देकर इस्लाम-धर्म की शरण में जा रहे थे। बंगाल में इसका प्रचार और प्रभाव अन्य प्रान्तों की अपेक्षा अत्यधिक था। इस प्रकार हिन्दू-समाज और प्राचीन वर्णाश्रम धर्म चारों ओर से छिन्न-भिन्न हो रहा था। धार्मिक स्थिति तो उस समय की महान ही जटिल थी। लोगों में यज्ञ-यागादिकों के प्रति जो शंकराचार्य के पश्चात् कुछ-कुछ रुचि हुई थी, वह तान्त्रिक और शाक्त-पद्धतियों के प्रचार के कारण फिर से लुप्त होती जा रही थी। वैदिक कर्मों के प्रति मनुष्य उदासीन बनते जा रहे थे। दिन-रात ‘जगत मिथ्या है, ‘जगत् मिथ्या है।’ इन वाक्यों को सुनते-सुनते लोग उकता-से गये थे। वे मस्ति की विद्या से ऊबकर कुछ हृदय के आहार की तलाश में थे। सतियों में भी वह पति-प्रेम नहीं रहा। लोकप्रथा को स्थिर रखने के निमित्त कहीं-कहीं तो अनिच्छापूर्वक जबरदस्ती विधवा स्त्री को उसके पति के साथ जला देते थे। निम्न श्रेणी के पुरुष भगवत्-प्राप्ति के अनधिकारी समझे जाते, उन्हें किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों के करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत एक नूतन धार्मिक पद्धति का इच्छुक था। लोग नीरस पद्धतियों से ऊबकर सरस पद्धति चाहते थे, ऐसे समय में भरत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बहुत-से महापुरुष एक साथ ही उत्पन्न हुए। उन सभी ने अपने-अपने प्रान्तों में वैष्णव-धर्म का प्रचार किया। इसलिये हम इस युग को वैष्णव-युग कह सकते हैं। सबसे पहले काशी में श्रीस्वामी रामानन्द जी महाराज हुए। वैरागी-सम्प्रदाय के ये ही आदि आचार्य समझे जाते हैं। इन्होंने भगवत-भक्ति में जाति-पाँति का बन्धन मेट दिया। इन्होंने सभी जातियों को समान रूप से भगवत्-भक्ति करने का अधिकार प्रदान किया। इनका सूत्र था- ‘हरि को भजै सो हरि का होय, जाति पाँति पूछै ना कोय।’ इनके बाद इनके बारह मुख्य शिष्य हुए जिनमें चमार, जुलाहे, छीपी, नाई आदि सभी अधिकांश में छोटी ही जाति के थे। |