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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
108. गीता का परिणाम और पूर्ण शरणागति
शरणागति से पूर्व ‘अर्जुन उवाच’
एक प्रश्न होता है कि गीता परिमाण में भगवत् शरणागति[1] के बाद अठारह बार आये ‘अर्जुन उवाच’ (सत्रह बार ‘उवाच’ और एक बार अंतिम ‘उवाच’ सहित श्लोक) को ही भगवान् के वचनों के अंतर्गत क्यों सम्मिलित किया गया? और शरणागति से पहले[2] आये तीन ‘अर्जुन उवाच’ को क्यों छोड़ा गया? इसका उत्तर यह है कि भगवत् शरणागति से पहले अर्जुन जो तीन बार बोले हैं, वे तों ‘अर्जुन उवाच’ संजय के ही वचनों के अंतर्गत हैं। अतः उनको भगवान् के वचनों में सम्मिलित नहीं किया गया है। संजय राजा धृतराष्ट्र से कह रहे हैं कि अर्जुन ऐसा-ऐसा बोले। पहले अध्याय के ‘अर्जुन उवाच’ के आरंभ में और अंत में आये हुए ‘आह’, ‘उक्त्वा’, ‘अब्रवीत्’ आदि पदों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन के वचनों को संजय ही अपने शब्दों में बोल रहे हैं; जैसे ‘पाण्डवः’,[3] ‘इदमाह महीपते’,[4] ‘एवमुक्तो हृषीकेशः’,[5] ‘कौन्तेयः’,[6] ‘इदमब्रवीत्’,[7] ‘एवमुक्त्वार्जुनः’[8] आदि पदों को तथा दूसरे अध्याय के ‘अर्जुन उवाच’ के बाद ‘एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप’ और ‘न योत्स्य इति[9] दूसरे अध्याय के चौथे श्लोक में ‘अर्जुन उवाच’ के आरंभ में ऐसे पद नहीं मिलते कि आगे आने वाले अर्जुन के वचन संजय ही बोल रहे हों। कारण कि पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध न करने के लिए भगवान् के सामने जो युक्तियाँ रखीं, उन सबका युक्तिसंगत उत्तर दिये बिना ही भगवान् ने एकाएक[10] अर्जुन को कायरतापूरूप दोष के लिए फटकारा और युद्ध के लिए खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी। इस आज्ञा ने अर्जुन के भाव उद्वेलित कर दिये। वे कायर बनकर युद्ध से विमुख नहीं हो रहे थे, प्रत्युत धर्मभीरू बनकर धर्म के भय से युद्ध से उपरत हो रहे थे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।7)
- ↑ (1।21 और 1।28 श्लोकों के बीच और 2।3 श्लोक के बाद)
- ↑ (1।20)
- ↑ (1।21)
- ↑ (1।24)
- ↑ (1।27)
- ↑ (1।28)
- ↑ (1।47)
- ↑ (2।9)
- ↑ (2।2-3 में)
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