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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
108. गीता का परिणाम और पूर्ण शरणागति
शरणागति से पूर्व ‘अर्जुन उवाच’
वे अपने मरने से नहीं, प्रत्युत स्वजनों को मारने के पाप से डरते थे। अतः ज्यों ही भगवान् ने दूसरे श्लोक में ‘कुतस्त्वा कश्मलमिदम्’ आदि पदों द्वारा अर्जुन को जोर से फटकारा, त्यों ही अर्जुन भी अपने भावों का ठीक समाधान न पाकर अकस्मात् उत्तेजित होकर बोल उठे- ‘कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन’[1] ‘हे मधुसूदन!’ मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ वाणों से युद्ध कैसे करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजनीय हैं। यहाँ ‘मधुसूदन’ और ‘अरिसूदन’ संबोधन देने का तात्पर्य है कि आप तो दैत्यों और शत्रुओं को मारने वाले हैं, पर मेरे सामने तो युद्ध में पितामह भीष्म (दादाजी) और आचार्य द्रोण (विद्यागुरु) खड़े हैं। संसार में मनुष्य के दो ही संबंध मुख्य हैं- कौटुम्बिक संबंध और विद्या-संबंध। दोनों ही अर्जुन के सामने उपस्थित हैं। संबंध में बड़े होने के नाते दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं। भगवान् उनके साथ युद्ध करने की आज्ञा देते हैं, जिससे उद्विग्न होकर अर्जुन एकाएक बोल उठते हैं; इसलिए संजय को ‘इदमाह’, ‘उक्त्वा’ आदि पदों से संकेत करने का अवसर ही नहीं मिला। यदि गहराई से देखा जाय तो दूसरे अध्याय में अर्जुन के बोलने के बाद[2] जहाँ संजय बोलते हैं, वहाँ अपने वचनों को दो भागों में विभक्त किया है-
अब यह प्रश्न हो सकता है कि जब अर्जुन के श्लोकों को इस प्रकार संजय के श्लोकों के अंतर्गत मानते हैं, तो फिर ग्यारहवें अध्याय में संजय द्वारा कहे गये ‘एवमुक्त्वा’,[3] ‘एतच्छुत्वा’[4] और ‘इत्यर्जुनम्’[5]- इन पदों से पहले आये भगवान् के वचनों को तथा अठारहवें अध्याय में संजय द्वारा। कहे गये ‘इत्यहम्’[6] पद से पहले आये भगवत्स्वरूप अर्जुन को वचन को भी संजय के ही वचनों के अंतर्गत क्यों नहीं मानते? यद्यपि इस प्रश्न का उत्तर सामान्य रीति से दूसरी जगह भी दिया जा चुका है, फिर भी यहाँ कहा जा सकता है कि भगवान् के श्लोक किसी प्रकार क्यों न आयें, वे भगवान् के ही माने जा सकते हैं। दूसरी बात, संजय वेदव्यास प्रदत्त दिव्यदृष्टि से संपन्न हैं और अर्जुन को भी भगवान् ने दिव्यदृष्टि दी है[7] अतः ग्यारहवें अध्याय में संजय की दिव्यदृष्टि भगवत्प्रदत्त दिव्यदृष्टि से अभिन्न हो जाती है, जिससे संजय भगवान् और अर्जुन के वचन ही बोलते हैं, न कि अपने वचन। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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