विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
86. गीता में आये समान चरणों का तात्पर्य
27. ‘न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’[1]- आठवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में परमात्मविषयक वर्णन की एकता करते हुए कहते हैं कि जिसको प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर नहीं आते, उसी को परमधाम कहते हैं; और पंद्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में अपनी महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो संसार से संबंध-विच्छेद करके परमात्मा की शरण हो जाता है, उसको परमधाम की प्राप्ति हो जाती है, जहाँ से फिर लौटकर नहीं आना पड़ता है। तात्पर्य है कि चाहे उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाय, चाहे उस परमात्मा के परमधाम में चला जाय अर्थात् चाहे यहाँ जीते जी परमात्मा को प्राप्त हो जाय, चाहे शरीर छोड़ने के बाद परमात्मा के परमधाम में पहुँच जाय- दोनों बातें एक ही हैं, दोनों में कोई फर्क नहीं है; क्योंकि दोनों में प्रकृति और उसके कार्य से संबंध छूट जाता है। 28. ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’[2]- ‘पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं- जानना और देखना। नवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में बुद्धि से जानने की बात आयी है कि सब कुछ भगवत्स्वरूप है; और ग्यारहवें अध्याय के आठवें श्लोक में विराट रूप को देखने की बात आयी है। गुरु, संत, भगवान् जना दें तो मनुष्य बुद्धि से जान सकता है, पर भगवान् का दिव्य विराट् रूप तभी देखा जा सकता है, जब भगवान् कृपा करके नेत्रों में दिव्यता देते हैं। तात्पर्य है कि नवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘ज्ञानचक्षु’ का वर्णन है और ग्यारहवें अध्याय के आठवें श्लोक में ‘दिव्यचक्षु’ का वर्णन है। 29. ‘नित्ययुक्ता उपासते’[3]- नवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में तो दैवी संपत्ति का आश्रय लेने वालों के नित्य-निरंतर भगवान् में लगे रहने की बात कही है और बारहवें अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान् के लिए कर्म करने वाले तथा उन्हीं के परायण रहने वालों के नित्य निरंतर भगवान् में लगे रहने की बात कही है। तात्पर्य है कि भगवान् की उपासना दो तरह से होती है- एक में सभी कर्म भगवत्संबंधी ही होते हैं और दूसरी में कर्म संसार-संबंधी भी होते हैं और भगवत्संबंधी भी होते हैं। दोनों तरह की उपासना में क्रियाओं का भेद तो है, पर भावों का भेद नहीं है अर्थात् भक्ति के साधन में क्रियाभेद तो हो सकता है, पर भावभेद नहीं होता। भगवान् का ही भाव होने के कारण दोनों ही साधक नित्य-निरंतर भगवान् में ही लगे रहते हैं, दूसरा भाव यह है कि भगवान् के साथ अपने वास्तविक संबंध को चाहे दैवी संपत्ति का आश्रय लेकर पहचान ले, चाहे साधन पञ्चक[4]से पहचान ले, फिर साधक नित्य-निरंतर भगवान् में ही लगा रहता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज