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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
86. गीता में आये समान चरणों का तात्पर्य
30. ‘यजन्ते श्रद्धयान्विता’[1]- नवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में सकाम मनुष्यों के द्वारा सत्-असत् रूप भगवान् का अविधिपूर्वक पूजन करने की बात आयी है। सकाम मनुष्य अपने इष्ट को भगवान् से अलग मानते हैं, उसको भगवद्रूप नहीं मानते, इसलिए उनके द्वारा किया गया पूजन अविधिपूर्वक होता है। सत्रहवें अध्याय के पहले श्लोक में शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धा से पूजन करने वालों की निष्ठा के विषय में अर्जुन का प्रश्न है कि वे कौन सी निष्ठा (श्रद्धा) वाले हैं। उसके उत्तर में भगवान् ने संपूर्ण प्राणियों की स्वभाव से उत्पन्न तीन प्रकार की श्रद्धा बतायी। तात्पर्य है कि नवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में देवताओं में भगवद्बुद्धि न होने से उनका पूजन श्रद्धापूर्वक किए जाने पर भी उसको अविधिपूर्वक कहा गया है, जिससे वे जन्म मरण को प्राप्त होते हैं; और सत्रहवें अध्याय के पहले श्लोक में शास्त्रविधि का अज्ञतापूर्वक त्याग होने पर भी तीन प्रकार की श्रद्धा की बात कही गयी है, जिसमें सात्त्विक श्रद्धा होने से वे दैवी-संपत्ति को प्राप्त हो जाते हैं, जो मोक्ष के लिए होती है। 31. ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु’[2]- नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में तो पहले राजविद्या, राज्यगुह्य और भक्ति के अधिकारियों का वर्णन करके फिर ‘मन्मना भव......’ आदि की आज्ञा दी; और अठारहवें अध्याय के पैसठवें श्लोक में पहले गुह्य, गुह्यतर और सर्वगुह्यतम बात बताकर फिर ‘मन्मना भव......’ आदि की आज्ञा दी। तात्पर्य है कि नवें अध्याय में भगवान् अपनी तरफ से ही नवें अध्याय का विषय शुरु करते हैं, भगवान् की तरफ से कृपा का स्रोत बहता है; परंतु अर्जुन के मन में अपने साधन का, पुरुषार्थ का कुछ अभिमान है, अतः भगवान् ने कहा ‘मन्मना भव मद्भक्तः.....मत्परायणः’[3] ‘तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मेरे को नमस्कार कर। इस प्रकार मेरे साथ अपने आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मेरे को ही प्राप्त होगा।’ अतः यहाँ भगवत्प्राप्ति में भगवत्परायणता हेतु है; और वहाँ[4] भगवत्प्राप्ति में केवल भगवत्कृपा ही हेतु है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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