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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 7-13
इधर व्यास जी को उनके इस षड्यन्त्र का पता लगा। उन्होंने धृतराष्ट्र से आकर कहा, “राजन, मैं जो सबके हित की बात कहता हूं, उसे सुनो। पाण्डवों का वन में जाना अच्छा नहीं हुआ। छल से उन्हें जीता गया। तेरह वर्ष पूरे होने पर उनके क्रोध की फुफकारें कौरवों पर छूटेंगी। तुम्हारा यह पापी पुत्र उन्हें मरवाना चाहता है। इसे बरज लो, अथवा इसे अकेले वन में निकाल दो। वहाँ भटकेगा, तो सम्भव है, इसके मन में पाण्डवों के लिए प्रेम का अंकुर फूट निकले।” धृतराष्ट्र ने कहा, “भगवन, मुझे भी वह जुए का काण्ड अच्छा नहीं लगा। मैं समझता हूँ कि ब्रह्मा ने हठात वह सब करा लिया। भीष्म, द्रोण, विदुर, गान्धारी, कोई भी उसे अच्छा नहीं समझता था। यह सब जानकर भी पुत्र-स्नेह से मैं दुर्योधन को नहीं छोड़ सकता।” व्यास ने गम्भीर होकर कहा, “हे विचित्रवीर्य के पुत्र, तुम सत्य ही कहते हो। पुत्र बड़ी चीज है, उससे बढ़कर कुछ नहीं। इस विषय में मुझे एक पुरानी बात याद आती है। एक समय स्वर्ग की सुरभि गौ के नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी। इन्द्र ने उससे कारण पूछा तब उसने कहा, ‘हे देवेन्द्र, आपकी कोई त्रुटि नहीं है। पृथ्वी पर फैले हुए अपने पुत्रों के शोक से मैं रो रही हूँ। इस निष्ठुर किसान को देखो-मेरे दुर्बल पुत्र को, जो हलके-भारी बोझ से पिसा जाता है, किस प्रकार नुकीली आर चुभा-चुभाकर मार रहा है। एक तो थके हुए, दूसरे इस प्रकार मार खाते इसे देखकर मेरा मन घबड़ा गया है। हे इन्द्र, देखो बोझे से लदे हुए उस छकड़े को मेरे दो पुत्र खींच रहे हैं। एक बली है, कितने भारी बोझ को ढो रहा है। दूसरा निर्बल ठठरीमात्र है, वह बोझ के भार से घिसट रहा है। उसे चाबुक की मार और आर की कोंच सहते हुए देखकर मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। उसी के दुःख से दुःखी मैं करुणा से आंसू बहा रही हूँ।’ इन्द्र ने कहा, ‘हे गौ, तेरे हजारों पुत्रों को इसी प्रकार पीड़ा सहनी पड़ती है। इस एक पुत्र के लिए तू इतना दुःख क्यों करती है?’ गौ ने कहा, ‘यदि मेरे सहस्र पुत्र भी हों तो मेरे लिए सब बराबर हैं, किन्तु जो दीन हैं, मेरे हृदय में उसी की अधिक चोट है।’ गौ की बात सुनकर इन्द्र का हृदय पिघल गया और उसने समझ लिया कि पुत्र प्राण से अधिक प्रिय होता है। इन्द्र ने चट मूसलाधार मेघ बरसाया और किसान की मार से बैल को छुटकारा मिला। इसलिए हे धृतराष्ट्र, मैं कहता हूँ कि अपने सब पुत्रों पर समान भाव रखो। उनमें जो दीन हैं, उन पर अधिक कृपा करो। यदि चाहते हो कि सब कौरव-पाण्डव फूलें-फलें तो दुर्योधन से कहो कि पाण्डव से मेल कर ले।” धृतराष्ट्र ने कहा, “हे महाप्राज्ञ, आप जैसा कहते हैं, उसे मैं भी ठीक समझता हूँ। विदुर, भीष्म, द्रोण ने भी ऐसा ही कहा था। यदि आपकी मुझ पर कृपा है तो आप ही दुर्योधन को क्यों न समझा दें?” व्यास ने मन में सोचा होगा कि यह अच्छी बला गले पड़ी। उस दुष्ट के मुंह कौन लगे! पर ऊपर से बोले, “हे राजन, देखो, यह मैत्रेय ऋषि पाण्डवों से मिलकर हम लोगों से मिलने आ रहे हैं। वह दुर्योधन को समझा सकेंगे जो यह कहें, वही करना। यदि वैसा न हुआ तो यह तुम्हारे पुत्र को शाप भी दे सकते हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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