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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 7-13
विदुर को लौटा हुआ जानकर और धृतराष्ट्र के साथ फिर मेल की बात सुनकर दुर्योधन ने शकुनि, कर्ण और दुःशासन से कहा, “धृतराष्ट्र का यह खोटा मंत्री फिर आ गया है। राजा की बुद्धि उसके कारण कहीं फिर न चकरा जाय और वह पाण्डवों को बुला भेजें। तब तक कोई हितकारी युक्ति निकालो। पाण्डव फिर लौटे नहीं कि मैं सूखकर कांटा हो जाऊंगा या जान खो दूंगा।” शकुनि ने कहा, “क्यों बच्चों की-सी बातें करते हो? पाण्डव सत्यवादी हैं, शर्तों का पालन करेंगे। तुम्हारे पिता के बुलाने पर भी वे न आयेंगे, और यदि आ भी गए तो मेरा पांसा तो कहीं चला नहीं गया।” दुःशासन ने मामा शकुनि के वचन का समर्थन किया। कर्ण ने कहा, “मेरा भी इसमें एकमत है।” पर दुर्योधन का मन इन सूखी बातों से खिला नहीं। उसने मुंह फेर लिया। कर्ण ने उसकी नब्ज पहचान ली और क्रोध से प्रचण्ड होकर कहा, “हम लोग राजा दुर्योधन के हाथ-बांधे गुलाम हैं। जब तक हाथ-पैर न हिलायंगे, उनको प्रसन्नता न होगी। मेरा मत है कि हम सब हथियार लेकर चलें और वन में पाण्डवों को ठिकाने लगा दें। उनके ठंडे हो जाने पर सब झगड़ा निपट जायगा।” कर्ण की यह बात सुनते ही उनके मुख से ‘वाह-वाह’ निकल पड़ी और तीनों गुट बनाकर पाण्डवों का नाश करने के लिए निकले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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