श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी18. विश्वरूप का गृह-त्याग
विश्वरूप बालक तो है ही नहीं। यदि उसकी ऐसी ही इच्छा है, तो भगवान उसकी मनोकामना पूर्ण करें। यदि उसे संन्यास में ही सुख है तो वह संन्यासी ही बनकर रहे। आप सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करें कि वह संन्यासी होकर अपने धर्म को यथारीति पालन करता रहे और फिर लौटकर घर में न आवे।’ पिता के ऐसे साहसपूर्ण वचनों को सुनकर सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी इसी सम्बन्ध की बातें करते हुए सुखपूर्वक घर लौट गये। माता-पिता ने धैर्य तो धारण किया, किन्तु उनके हृदय में सर्वगुण-सम्पन्न पुत्र के वियोग के कारण एक गहरा-सा घाव हो गया जो अन्त तक बना रहा। मिश्रजी तो एक ही घाव को लेकर इस संसार से विदा हो गये, किन्तु वृद्धा शची के तो आगे चलकर एक और भी बड़ा भारी घाव हुआ था, जिसकी मीठी-मीठी वेदना का रसास्वादन करते हुए उसने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार वेदनामय ही बिताया। गृहस्थ में जहाँ अनेक सुख और आनन्द के अवसर आते हैं, वहाँ ऐसे दुःख के भी प्रसंग बहुत आते हैं, जिनके स्मरणमात्र से छाती फटने लगती है। जगज्जननी सीता जी जब अपने प्राणनाथ श्रीरामचन्द्र जी के वियोग से अत्यन्त ही व्यथित हो उठीं ओर उनकी वेदना असह्या हो गयी तब उन्होंने रोते-रोते बड़ी ही मार्मिक वाणी में हनुमान जी से ये वचन कहे थे- प्रियान्न संभवेद्दुःखमप्रियादधिकं भवेत्। वे जितात्मा सत्यवादी महात्मा धन्य हैं जिन्हें प्रिय की प्राप्ति में न तो सुख होता है ओर न अप्रिय की प्राप्ति में अधिक दुःख, व्यथा हो सकती है, जिनकी वृत्ति सुख-दुःख में समान रहती है, ऐसे महात्माओं के चरणों में बार-बार प्रणाम है। |