श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी153. श्री शिवानन्द सेन की सहनशीलता
शिवानन्द जी की इतनी सहनयशीलता, ऐसी क्षमा और ऐसी एकान्तनिष्ठा को देखकर नित्यानन्द जी का हृदय भर आया। उन्होंने जल्दी से उठकर शिवानन्द जी को गले से लगाया और उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहने लगे-‘शिवानन्द ! तुम्हीं सचमुच प्रभु के परम कृपापात्र बनने योग्य हो। जिसमें इतनी अधिक क्षमा है वह प्रभु का अवश्य ही अन्तरंग भक्त बन सकता है।’ सचमुच नित्यानन्द जी का यह आशीर्वाद फलीभूत हुआ और प्रभु ने सेन महाशय के ऊपर अपार कृपा प्रदर्शित की। प्रभु ने अपने अच्छिष्ट महाप्रसाद को शिवानन्द जी के सम्पूर्ण परिवार के लिये भिजवाने की गोविन्द को स्वयं आशा दी। इनकी ऐसी ही तपस्या के परिणामस्वरूप तो कवि कर्णपूर-जैसे परम प्रतिभावान महाकवि और भक्त इनके यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। नित्यानन्द जी का ऐसा बर्ताव शिवानन्द जी सेन के भगिनी-पुत्र श्री कान्त को बहुत ही अरुचिकर प्रतीत हुआ। वह युवक था, शरीर में युवावस्था का नूतन रक्त प्रवाहित हो रहा था, इस बात से उसने अपने मामा का घोर अपमान समझा और इसकी शिकायत करने के निमित्त वह सभी भक्तों से अलग होकर सबसे पहले प्रभु के समीप पहुँचा। बिना वस्त्र उतारे ही वह प्रभु को प्रणाम करने लगा। इस पर गोविन्द ने कहा- श्री कान्त ! तुम यह शिष्टाचार के विरुद्ध बर्ताव क्यों कर रहे हो? अंगरखे को उतारकर तब साष्टांग प्रणाम किया जाता है। पहले वस्त्रों को उतार लो, रास्ते की थकान मिटा लो, हाथ-मुँह धो लो, तब प्रभु के सम्मुख प्रणाम करने जाना।’ किन्तु उसने गोविन्द की बात नहीं सुनी। प्रभु भी समझ गये अवश्य ही कुछ दाल में काला है, इसलिये उन्होंने गोविन्द से कह दिया- ‘श्री कान्त के लिये क्या शिष्टाचार और नियम, वह जो करता है ठीक ही है, इसे तुम मत रोका। इसी दशा में इसे बातें करने दो।’ इतना कहकर प्रभु उससे भक्तों के सम्बन्ध में बहुत सी बातें पूछने लगे। पुराने भक्तों की बात पूछकर प्रभु ने नवीन भक्तों के सम्बन्ध में पूछा कि अबके बाल भक्तों में से कौन-कौन आया है? प्रभु के पीछे जो बच्चे उत्पन्न हुए थे, वे सभी अबके अपनी अपनी माताओं के साथ प्रभु के दर्शनों की उत्कण्ठा से आ रहे थे। श्रीकान्त ने सभी बच्चों का परिचय देते हुए शिवानन्द जी के पुत्र परमानन्द दास का परिचय दिया और उसकी प्रखर प्रतिभा तथा प्रभु दर्शनों की उत्कण्ठा की भी प्रशंसा की। प्रभु उस बच्चे को देखने के लिये लालायित से प्रतीत होने लगे। इन सभी बातों में श्री कान्त नित्यानन्द जी की शिकायत करना भूल गये। इतने में ही सभी भक्त आ उपस्थित हुए। प्रभु ने सदा की भाँति सबका स्वागत-सत्कार किया और उन्हें रहने के लिये यथायोग्य स्थान दिलाकर सभी के प्रसाद की व्यवस्था करायी। |