श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी153. श्री शिवानन्द सेन की सहनशीलता
एक बार नीलाचंल आते समय पुरी के पास ही किसी घटवारिया ने शिवानन्द सेनजी को रोक रखा। वे भक्तों के ठहरने और खाने पीने का कुछ भी प्रबन्ध न कर सके। क्योंकि घटवारियों ने उन्हें वहीं बैठा लिया था। इससे नित्यानन्द जी को उनके ऊपर बड़ा क्रोध आया। एक तो वे दिन भर भूखे थे, दूसरे रास्ता चलकर आये थे, तीसरे भक्तों को निराश्रय भटकते देखने से उनका क्रोध उभड़ पड़ा। वे सेन महाशय करे भली बूरी बातें सुनाने लगे, उसी क्रोध के आवेश में आकर उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि- ‘इस शिवानन्द के तीनों पुत्र मर जाये, इसकी धन सम्पत्ति का नाश हो जाय, इसने हमारे तथा भक्तों के रहने और खाने पीने का कुछ भी प्रबन्ध नहीं किया।’ नित्यानन्द जी के क्रोध में दिये हुए ऐसे अभिशाप को सुनकर सेन महाशय की पत्नी को अत्यन्त ही दुःख हुआ, वे फूट फूट कर रोने लगीं। जब बहुत रात्रि बीतने पर घाटवालों से जैसे-तैसे पिण्ड छुड़ाकर शिवानन्द जी अपने बाल-बच्चों के समीप आये तब उनकी धर्मपत्नी ने रोते रोते कहा- 'गुसाईं ने क्रुद्ध होकर हमें ऐसा भयंकर शाप दे दिया है। हमने उनका ऐसा क्या बिगाड़ा था? अब भी वे क्रुद्ध हो रहे हैं, आप उनके पास न जायँ।’ शिवानन्द जी ने दृढ़ता के साथ पत्नी की बात की अवहेलना करते हुए कहा- ‘पगली कहीं की ! तू उन महापुरुष की महिमा क्या जाने? तेरे तीनों पुत्र चाहे अभी मर जायँ और धन सम्पत्ति की तो मुझे कुछ परवा नहीं। वह तो सब गुसाईं की ही है, वे चाहें तो आज ही सबको छीन लें। मैं अभी उनके पास जाऊँगा और उनके चरण पकड़कर उन्हें शान्त करूँगा।’ यह कहते हुए वे नित्यानन्द जी के समीप चले। उस समय भी नित्यानन्द जी का क्रोध शान्त नहीं हुआ था। वृद्ध शिवानन्द जी को अपनी ओर आते देखकर उनकी पीठ में उठकर जोरों से एक लात मारी। सेन महाशय ने कुछ भी नहीं कहा। उसी समय उनके ठहरने और खाने पीने की समुचित व्यवस्था करके हाथ जोड़े हुए कहने लगे- ‘प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हुआ, जिन चरणों की रज के लिये इन्द्रादि देवता भी तरसते हैं वही चरण आपने मेंरी पीठ से छुआये। मैं सचमुच कृतार्थ हो गया। गुसाईं ! अज्ञान के कारण मेरा जो अपराध हुआ हो, उसे क्षमा करें। मैं अपनी मूर्खतावश आपको क्रुद्ध करने का कारण बना- इस अपराध के लिये मैं लज्जित हूँ। प्रभो ! मुझे अपना सेवक समझकर मेरे समसत अपराधों को क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हों।’ |